#आकाशीय विषुवत रेखा - Akashiya Vishuvrit Rekha
जिस प्रकार पृ्थ्वी के बीचों-बीच पूर्व से पश्चिम तक विषुवत रेखा (भूमध्य रेखा) गई है उसी प्रकार ठीक उसके उपर आकाशीय विषुवत वृ्त्त भी है. जो काल्पनिक है. इसी आकाशीय कल्पित रेखा को विषुवत वृ्त्त या नाडी़वृ्त्त भी कहते है. इसे निरक्ष भी कहते हैं अर्थात यहाँ पर अक्षांश शून्य रहता है.


आकाशीय विषुवत वृ्त्त (नाडी़वृ्त्त) आकाश के 2 समान हिस्से करता है. इसका एक भाग उत्तर में ओर दूसरा भाग दक्षिण में हो जाता है. जो भाग उत्तर में है वह उत्तर गोल और जो भाग दक्षिण में है वह दक्षिण गोल कहलाता है. पर इस बात का ध्यान रखना चाहिए सूर्य इस नाडी़वृ्त्त पर से नहीं घूमता, वह क्रान्तिवृ्त्त से घूमते दिखाई देता है.

#भचक्र या राशिचक्र - Bhachakra / Rashi Chakra [Zodiac]
राशिचक्र को भचक्र भी कहते है. यह क्रान्तिवृ्त्त के उत्तर व दक्षिण में 9-9 डिग्री की चौडा़ई का कल्पित पट्टा माना जाता है.या हम कह सकते है कि ये कुल 18 डिग्री की पट्टी है जिसमें सब ग्रह स्थित है. इसे भचक्र या राशिचक्र इसलिए कहते है क्योंकि सारे ग्रह इस कल्पित पट्टे के भीतर क्रान्तिवृ्त्त पर या उसके उत्तर या दक्षिण होकर घूमा करते है.18 डिग्री चौडे़ इस राशिचक्र के 12 समान विभाग करने से 12 राशियाँ बनी हैं. और इसी के 27 समान विभाग किए जाए तो 27 नक्षत्र होते हैं.

इस राशिचक्र का आदि अन्त नहीं हैं. लेकिन नापने के लिए जो बिन्दु तय किया गया है वह मेष राशि का आदि स्थान है. यह राशिचक्र दिन में एक बार पूर्व से पश्चिम की ओर घूमते हुए दिखाई देता है. जैसे चित्र में दिखाया गया है. राशिचक्र में 360 डिग्री होती हैं. इनके 12 बराबर हिस्से करने पर एक राशि 30 डिग्री की होती है.

इसी प्रकार 360 डिग्री के 27 बराबर हिस्से करने पर 13 डिग्री 20 मिनट का एक हिस्सा मिलता है जो कि हमारे एक नक्षत्र का मान है.

#यमघण्ट नक्षत्र - Yamghanta Nakshatra
ये विशेष नक्षत्र जब भी कहे गए वार में पडे़ तो सब शुभ कार्यों मे वर्जित है.

रविवार को मघा नक्षत्र

सोमवार को विशाखा नक्षत्र

मंगलवार को आर्द्रा नक्षत्र

बुधवार को मूल नक्षत्र

गुरुवार को कृ्त्तिका नक्षत्र

शुक्रवार को रोहिणी नक्षत्र

शनिवार को हस्त नक्षत्र.

#यमदंष्ट्रा नक्षत्र - Yamdanshtra Nakshatra
वार विशेष में यदि विशेष नक्षत्र पडे़ तो यमदंष्ट्रा अर्थात यमराज की दाढ़ नामक योग होता है. सभी प्रकार के शुभ कार्यों में इस नक्षत्र को छोड़ देना चाहिए.


#यमया योग - Yamaya Yog
यह योग नक्त योग जैसा ही है, लेकिन अंतर केवल इतना है कि इसमें लग्नेश और कार्येश के बीच मध्यस्थता करने वाला ग्रह मंदगामी होता है. यह ग्रह लग्नेश और कार्येश दोनों से ही मंद गति होता है. इस प्रकार यमया योग बनता है. जिस वर्ष यह योग बनता है उस वर्ष कार्य सिद्धि कुछ विलम्ब व बाधाओं के बाद ही होती है.

#यमी योग - Yami Yog
वर्ष कुण्डली में वृषभ या तुला राशि का गुरु हो तथा धनु या मीन राशि में शुक्र दूसरे, पांचवें, आठवें या एकादश भाव में हो तब यमी योग बनता है.

जिस वर्ष यह योग बनता है उस वर्ष जातक को सफलता हासिल होती है. जातक को धन का लाभ, तथा समस्त प्रकार का शुभ फल प्राप्त होता है.

#यश सहम - Yash Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- बृ्हस्पति - पुण्य सहम + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- पुण्य सहम - बृहस्पति + लग्न

#यामोत्तर वृ्त्त - Yamottar Vrit [Yamottar Arc]
उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाली कल्पित रेखाएँ जो विषुवत वृ्त्त को काटती हुई जाती हैं वे ही रेखाएँ यामोत्तर वृ्त्त हैं. इसी यामोत्तर वृ्त्त से पूर्व या पश्चिम का जो अन्तर है वह भोग का भोगांश या क्षेप ( celestial longitude ) कहलाता है. आकाश में एक मुख्य यामोत्तर वृ्त्त से यह पूर्व या पश्चिम को नापा जाता है इस अन्तर को क्रान्ति वृ्त्त पर नापा जाता है.

#युगादि तिथि - Yugadi Tithi
युगादि तिथियाँ सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग के प्रारम्भ की तिथियाँ मानी जाती हैं. ये तिथियाँ विवाह आदि शुभ कार्यों में वर्जित हैं.

युगादि तिथियाँ निम्नलिखित हैं.

  1. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि.
  2. वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृ्तीया तिथि.
  3. माघ मास के कृ्ष्ण पक्ष की अमावस्या.
  4. श्रावण मास के कृ्ष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि.

#युति दोष - Yuti Dosh
युति दोष उस समय होता है जब विवाह के समय चन्द्र नक्षत्र से पाप ग्रह युति करते हों. चन्द्रमा यदि स्वराशि या उच्च राशि में हो तो विशेष प्रभाव नही होता है.

कुछ विद्वानों का मानना है कि किसी भी ग्रह की युति हो वह अच्छा नहीं है. युति का परिहार चन्द्रमा के बलवान होने से ही होता है.

शुभ ग्रह बुध व गुरु दोष कारक नहीं माने जाते है. चन्द्रमा और अन्य ग्रह का नक्षत्र एक ही हो पर दोनों राशि अलग हों तो भी युति दोष माना जायेगा.

#योग - Yog
यह पंचांग का चौथा अंग है. 27 योग होते है. चन्द्र और सूर्य की गति में जब 13 डिग्री 20 मिनट का अन्तर पड़ता है तब एक योग होता है. इन योगों का आकाश की स्थिति से कोई सम्बन्ध नहीं है. योग केवल सूर्य और चन्द्र का अन्तर बतलाते है.

योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ना. योगों के नाम से ही पता चल जाता है कि यह योग शुभ है या अशुभ. योगों के नाम निम्नलिखित हैं :-

  1. विषकुम्भ
  2. प्रीति
  3. आयुष्मान
  4. सौभाग्य
  5. शोभन
  6. अतिगण्ड
  7. सुकर्मा
  8. धृ्ति
  9. शूल
  10. गण्ड
  11. वृ्द्धि
  12. ध्रुव
  13. व्याघात
  14. हर्षना
  15. वज्र
  16. सिद्धि
  17. व्यतिपात
  18. वरीयान
  19. परिधि
  20. शिव
  21. सिद्धा
  22. साध्य
  23. शुभ
  24. शुक्ल
  25. ब्रह्म
  26. इन्द्र
  27. वैधृ्ति

#योग और करण शुद्धि - Yog And Karan Shuddhi
विवाह मुहूर्त में कुछ योगों को त्याग दिया गया है, जो निम्नलिखित हैं :-

वैधृ्ति, व्याघात, शूल, व्यातिपात, अतिगण्ड, वज्र, विषकुंभ, गण्ड, परिधि, हर्षण योग. विष्टि या भद्रा के संबंध में भी सभी विद्वानों ने इसका पूर्णतया त्याग करने को कहा है. शकुनादि चार स्थिर करण भी त्याज्य हैं. इनका त्याग अपने आप ही हो जाता है यदि कृ्ष्ण चतुर्दशी, अमावस्या आदि को छोड़ दिया जाये.

#योगकारक ग्रह - Yog Karak Grah
जब कोई ग्रह केन्द्र और त्रिकोण दोनों का स्वामी होता है तब वह उस कुण्डली के लिए योग कारक ग्रह बन जाता है. जैसे कर्क लग्न के लिए मंगल योग कारक ग्रह है. कर्क लग्न में मंगल कुण्डली में पंचमेश व दशमेश दोनो है.

#योगार्ध दशा - Yogardh Dasha
लग्न एवं सप्तम भाव में जो भाव बली हो उससे दशा दशा क्रम शुरु होगा. यदि विषम राशि है तब दशा क्रम सीधा चलेगा (clock wise). यदि सम राशि है तब दशा क्रम विपरीत चलेगा (Anti clock-wise). चर दशा एवं स्थिर दशा में जितने वर्ष आएं उनका योग करके जो संख्या प्राप्त हो उसे फिर आधा करें.

यह एक उलझावपूर्ण कार्य है. इसीलिए इस दशा की तरफ ज्योतिषी कम ध्यान देते हैं और यह लोकप्रिय नहीं हो पाई.

#योगिनी दशा - Yogini Dasha
योगिनी दशा

यह दशा भी नक्षत्र पर आधारित है मानसागरी के अनुसार योगिनी दशा आठ हैं. तंत्र शास्त्र में 64 योगिनी हैं जिनकी सिद्धि योगी जन करते हैं. नाम के अनुसार ही इस दशा का फल प्राप्त होता है. नक्षत्र पर आधारित होने के कारण इस दशा की गणना विंशोत्तरी दशा की तरह की जाती है . नक्षत्र की क्रम संख्या में 3 जमा करें. जो संख्या प्राप्त हो उसे 8 से भाग दें. जो शेष बचा उस संख्या के स्वामी से दशा क्रम आरम्भ होगा.

रोहिणी नक्षत्र का क्रम चौथा है तो 4 में 3 जमा करें तो 7 संख्या प्राप्त होगी. यह संख्या 8 से भाग नहीं हो सकती. तो हम इस संख्या को ऎसे ही ले लेते हैं. 7 संख्या के क्रम में सिद्धा दशा आती है तो दशा क्रम सिद्धा से आरम्भ होगा.

दशा नाम स्वामी वर्ष

मंगला चन्द्र 1 वर्ष

पिंगला सूर्य 2 वर्ष

धान्या गुरु 3 वर्ष

भ्रामरी मंगल 4 वर्ष

भद्रिका बुध 5 वर्ष

उल्का शनि 6 वर्ष

सिद्धा शुक्र 7 वर्ष

संकटा राहु 8 वर्ष

#योगिनी मुद्दा दशा - Yogini Mudda Dasha
जन्म कुण्डली में चन्द्र जिस नक्षत्र में स्थित है उस नक्षत्र संख्या में वर्ष कुण्डली के पूर्ण वर्ष तथा 3 जोडे़. जोड़ने के बाद जो संख्या प्राप्त हो उसे 8 से भाग दें. जो संख्या शेष बचे, उस संख्या से संबंधित ग्रह की योगिनी मुद्दा दशा प्रारम्भ होगी. योगिनी मुद्दा दशा कुल 360 दिन की होती है.

  1. मंगला मुद्दा दशा 10 दिन की होती है.
  2. पिंगला मुद्दा दशा 20 दिन की होती है.
  3. धान्या मुद्दा दशा 30 दिन की होती है.
  4. भ्रामरी मुद्दा दशा 40 दिन की होती है.
  5. भद्रिका मुद्दा दशा 50 दिन की होती है.
  6. उलका मुद्दा दशा 60 दिन की होती है.
  7. सिद्दा मुद्दा दशा 70 दिन की होती है.
  8. संकटा मुद्दा दशा 80 दिन की होती है.

#योनि मिलान - Yoni Milan [Yoni Matching]
योनियाँ 14 प्रकार की होती हैं :- 1 अश्व, 2 गज, 3 मेष, 4 सर्प, 5 श्वान, 6 मार्जार, 7 मूषक, 8 गौ, 9 महिष, 10 व्याघ्र, 11 मृ्ग, 12 वानर, 13 नकुल एवं 14 सिंह. योनि विचार में नक्षत्रों की संख्या 28 मानी गई हैं. इसमें अभिजित नक्षत्र को भी शामिल किया गया है. व्यक्ति के जन्म नक्षत्र के आधार पर उसकी योनि का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए. योनि विचार में समान योनि शुभ मानी गई हैं. मित्र योनि और भिन्न योनि भी ले सकते हैं परन्तु वैर (शत्रु योनि) योनि सर्वथा वर्जित है.

योनि विचार में पूर्ण शुभता के 4 अंक होते हैं.

समान योनि होने पर 4 अंक

मित्र योनि होने पर 3 अंक

समयोनि के 2 अंक

शत्रु योनि का 1 अंक

अतिशत्रु योनि का 0 अंक माना जाता है.

योनि मिलान को वर-वधु के मिलान के लिए तो हम लेते ही है साथ ही यह साझेदारी, मालिक, नौकर एवं राजा तथा मंत्री के परस्पर मेल के लिए भी विचारणीय है. सम योनि के लोगों की मनोवृ्त्ति, रूचि, एवं जीवन के मूल्य समान होते हैं.


#वर्ण मिलान - Varna Milan [Varna Matching]
वर्ण मिलान, अष्टकूट मिलान में से एक है.

वर-कन्या का वर्ण समान है (जैसे दोनों क्षत्रिय हों, ब्राह्मण हों आदि) या वर के वर्ण से कन्या का वर्ण निम्न हो तब वर्ण गुण मिलान में एक अंक मिल जाता है. यदि वर के वर्ण से कन्या का वर्ण ऊँचा (श्रेष्ठ) हो तब वर्ण गुण मिलान में 0 अंक मिलता है.


वर्ण चार होते हैं :-

  1. ब्राह्मण
  2. क्षत्रिय
  3. वैश्य
  4. शूद्र
इनका निर्धारण जन्म राशि के आधार पर किया जाता है.

कर्क, वृ्श्चिक और मीन राशि ब्राह्मण वर्ण हैं.

मेष, सिंह और धनु राशि क्षत्रिय वर्ण हैं.

वृ्ष, कन्या और मकर राशि वैश्य वर्ण है.

मिथुन, तुला और कुंभ राशि शूद्र वर्ण हैं.

वर एवं कन्या के जन्मनक्षत्र से उनकी राशि का निश्चय करके वर्ण का विचार करना चाहिए.


#वर्तमान इत्थशाल - Vartaman Itthashal
वर्ष कुण्डली में यदि शीघ्र गति ग्रह के अंश मंद गति ग्रह के अंश से कम हों तो वर्तमान इत्थशाल का सूचक है. वर्तमान इत्थशाल के लिए शीघ्र गति युक्त ग्रह मंद गति ग्रह से अंश में कम होना चाहिए. दोनों ग्रहों के मध्य पारस्परिक दृ्ष्टि संबंध होना चाहिए. ग्रह अक्षांश अंतर दीप्तांश के मध्य होना चाहिए.

#वर्ष कुण्डली या ताजिक - Varsh Kundali or Tajik
हर वर्ष की वर्षफल कुण्डली को ही ताजिक कहते हैं. इस पद्धति में एक-एक वर्ष का पृ्थक-पृ्थक फल तथा प्रत्येक वर्ष हर ग्रह के स्वतंत्र फल को महत्व दिया गया है. इस पद्धति में नवग्रहों की अपनी-अपनी पहचान होते हुए भी एक ग्रह को सर्वाधिक महत्व दिया गया है, वो ग्रह वर्षेश कहलाता है.

वर्ष प्रवेश कुण्डली सूर्य पर आधारित है. जन्म कुण्डली में सूर्य जिस राशि, अंश, कला और विकला पर स्थित होता है, अगले वर्ष उसी जन्म राशि, अंश, कला और विकला पर जब सूर्य स्थित होगा तब उस समय वर्ष प्रवेश कुण्डली का निर्माण होता है.

सूर्य हर वर्ष 365 दिन, 15 घटी, 31 पल 30 विपल में पुन: उसी स्थान या बिन्दु पर आ जाता है जिस पर वह जन्म के समय था. इसे सूर्य का ध्रुवांक भी कहते हैं. इस कारण वर्ष प्रवेश कुण्डली जन्म दिन से एक दिन पहले या एक दिन बाद में बनती है या उसी दिन सुबह या शाम के समय में वर्ष प्रवेश कुण्डली बनती है.

#वर्ष लग्नपति - Varsh Lagnapati
वर्ष कुण्डली में जो ग्रह लग्न राशि का स्वामी है, वह वर्ष लग्नपति कहलाता है.

#वर्षेश - Varshesh
वर्ष कुण्डली में हर वर्ष कोई एक बली ग्रह वर्षेश बनता है. वर्ष कुण्डली में पंच अधिकारियों में से ही वर्षेश का निर्णय किया जाता है. वर्षेश बनने के लिए कुछ शर्तों का पूरा होना आवश्यक है तभी कोई ग्रह वर्षेश बनता है. वह शर्तें या नियम निम्नलिखित हैं :-

  1. वर्ष कुण्डली के लग्न पर पंचाधिकारियों में से किसी भी एक ग्रह की दृ्ष्टि होनी चाहिए. दृ्ष्टि से तात्पर्य यहाँ ताजिक दृ्ष्टियाँ हैं. मित्र दृ्ष्टि हो या शत्रु दृ्ष्टि हो, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता.
  2. यदि पंचाधिकारियों में से सर्वाधिक बलिष्ठ ग्रह लग्न पर दृ्ष्टि नहीं डाल रहा है तो पंचाधिकारियों में से किसी अन्य ग्रह को वर्षेश बनाना चाहिए.
  3. यदि पंचाधिकारियों के सभी के बल समान हैं तब जो ग्रह अधिक पदों से युक्त हो वह वर्षेश बनेगा.
  4. यदि पंचाधिकारियों में से कोई भी ग्रह लग्न पर दृ्ष्टि प्रभाव नहीं डाल रहा हो तब मुन्थेश भी वर्षेश बन सकता है.
  5. यदि पंचाधिकारियों का बल पांच अंकों से भी कम है तब मुन्थेश को वर्षेश बना सकते हैं.

#वश्य कूट मिलान - Vashya Koot Milan [Vashya Koot Matching]
वश्य कूट मिलान का संबंध विवाह ज्योतिष में अष्टकूट मिलान से है.

वर एवं कन्या की राशियों से उनके वश्य का निश्चय करके फिर उनके स्वभाव के अनुसार उनमें वश्यभाव, मित्रभाव, शत्रुभाव या भक्ष्य भाव पर ध्यान देना चाहिए.

यदि दोनों के वश्यों में मित्रता हो तो 2 गुण

यदि एक वश्यभाव एवं दूसरा शत्रु भाव रखता हो तो 1 गुण

यदि एक वश्य भाव और दूसरा भक्ष्य भाव रखता हो तो आधा गुण.

दोनों परस्पर शत्रुभाव या भक्ष्यभाव रखते हों तो कोई गुण नहीं मिलता.

वश्य पाँच प्रकार के होते हैं :-

  1. चतुष्पाद
  2. मानव (द्विपद)
  3. जलचर
  4. वनचर
  5. कीट

मेष, वृ्ष, सिंह व धनु का उत्तरार्द्ध तथा मकर का पूर्वार्द्ध चतुष्पाद संज्ञक होते हैं.

सिंह राशि चतुष्पाद होते हुए भी वनचर मानी गई है.

मिथुन, कन्या, तुला, धनु का पूर्वार्द्ध तथा कुंभ राशि द्विपद या मानव संज्ञक मानी गई हैं.

मकर का उत्तरार्द्ध, मीन तथा कर्क राशि जलचर होती हैं. वृ्श्चिक राशि कीट मानी गई है.

इस प्रकार वर एवं कन्या के वश्य का निर्धारण उनकी राशि से कर लेना चाहिए.


#विंशांश - Vinshansh
इस वर्ग कुण्डली का उपयोग पूजा, उपासना, प्रार्थना और आशीर्वाद देखने के लिये किया जाता है. यह वर्ग ध्यान, अध्यात्मिक एवं धार्मिक झुकाव को भी दर्शाता है. 30 डिग्री के 20 बराबर भाग किये जाते है. प्रत्येक भाग 1 डिग्री 30 मिनट का होता है.

यदि ग्रह चर राशि में स्थित है तो गणना मेष राशि से शुरु होगी. स्थिर राशि में ग्रह होने से गणना धनु राशि से शुरु होगी और द्विस्वभाव राशि में ग्रह है तो सिंह राशि से गणना शुरु होगी.

#विंशोत्तरी दशा - Vinshottari Dasha
विंशोत्तरी दशा सर्वमान्य एवं लोकप्रिय है. ये दशा जन्म नक्षत्र पर आधारित है. इसके अलावा अनेक दशाएं हैं जो जन्म नक्षत्र पर आधारित है. लेकिन वह ज्यादा प्रचलन में नहीं हैं.

विंशोत्तरी दशा कृ्तिका नक्षत्र के स्वामी सूर्य से प्रारम्भ कर क्रम से सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु, शुक्र ग्रहों की होती है. यदि हम कृ्तिका से जन्म नक्षत्र तक गिनें तो जो संख्या आती है उसे 9 से भाग देने पर अब जो नक्षत्र संख्या प्राप्त होगी उस के स्वामी ग्रह से दशा क्रम आरम्भ होगा. जिस नक्षत्र में जन्म होगा उसके स्वामी की प्रथम महादशा होगी. विंशोत्तरी दशा कुल 120 वर्षों की होती है इसलिये इसे विंशोत्तरी दशा कहते हैं.

ग्रहों के महादशा वर्ष निम्न हैं :-

सूर्य - 6 वर्ष

चन्द्र - 10 वर्ष

मंगल - 7 वर्ष

राहु - 18 वर्ष

गुरू - 16 वर्ष

शनि - 19 वर्ष

बुध - 17 वर्ष

केतु - 7 वर्ष

शुक्र - 20 वर्ष

#विंशोत्तरी मुद्दा दशा - Vinshottari Mudda Dasha
जन्म कुण्डली में चन्द्र जिस नक्षत्र में स्थित है, उस नक्षत्र संख्या में से दो घटा दें. जो संख्या प्राप्त होती है उसमें वर्ष कुण्डली के पूर्ण वर्षों को जोड़ दें. जोड़ने के उपरान्त जो संख्या आए उसे 9 से भाग दें जो संख्या शेष बचे उस संख्या के ग्रह की दशा से वर्ष कुण्डली में दशा प्रारम्भ होगी. मुद्दा दशा के ग्रहों की दशा का क्रम निम्न है :-

  1. सूर्य
  2. चन्द्र
  3. मंगल
  4. राहु
  5. बृहस्पति
  6. शनि
  7. बुध
  8. केतु
  9. या (0) शेष बचेगा तब शुक्र की मुद्दा दशा से दशा का प्रारम्भ होगा.

#विंशोपक बल - Vinshopak Bal
प्रत्येक ग्रह का पंचवर्गीय बल निकालने के बाद उसे 4 से भाग देने पर जो भागफल आएगा वह विंशोपक बल कहलाता है. हर ग्रह का विंशोपक बल अलग-अलग निकालते हैं.

विंशोपक बल में जिस ग्रह का बल 15 से 20 के मध्य होता है वह ग्रह पूर्ण बली होता है.

जिस ग्रह का विंशोपक बल 10 से 15 के मध्य होता है वह ग्रह मध्यम बली होता है.

जिस ग्रह का विंशोपक बल 5 से 10 के मध्य होता है वह ग्रह निर्बल या अल्पबली होता है.

जो ग्रह 5 से भी कम विंशोपक बल प्राप्त करता है वह बिलकुल ही बलहीन है.

#विजय दशमी मुहूर्त - Vijay Dashami Muhurta
आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी ' विजया' दशमी कहलाती है. हम कह सकते हैं कि दशहरे के दिन को ही विजय दशमी कहते हैं. यह शुभ कार्यों में सफलता देने वाली है. यदि विजय दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र भी हो तो यह दिन विशेष शुभ हो जाता है. यह तिथि यात्रा में विजयदायक और सन्धिकारक होती है.

#विद्या सहम - Vidya Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- सुर्य - चन्द्र + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- चन्द्र - सूर्य + लग्न

#विवाह मासादि - Vivah Masadi
विवाह - मासादि

आचार्यों ने माघ, फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ व मार्गशीर्ष मासों को ववाह के लिए उपयुक्त बताया है. इसके अतिरिक्त आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि तक यदि कर्क संक्रान्ति ना हुई तो भी विवाह हो सकता है. पौष मास के उत्तरार्ध में यदि मकर संक्रान्ति हो गई हो तो भी विवाह संभव है.

#विवाह में नक्षत्र शुद्धि - Vivah Me Nakshatra Shuddhi
नक्षत्र शुद्धि

समस्त आचार्यों तथा मनीषियों ने नक्षत्रों में रोहिणी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा़, उत्तराफाल्गुनी, मूल, स्वाति, अश्विनी नक्षत्रों को उपयुक्त माना है.

#विवाह सहम - Vivah Saham
दिन व रात्रि प्रवेश दोनों :- शुक्र - शनि + लग्न

#विशाख्य तिथि - Vishakhya Tithi
विशाख्य या विषयोग तिथियाँ शुभ कार्यों में वर्जित होती हैं. इन तिथियों का संबंध वार से होता है.

  1. रविवार को चतुर्थी तिथि.
  2. सोमवार को षष्ठी तिथि.
  3. मंगलवार को सप्तमी तिथि.
  4. बुधवार को द्वितीया तिथि.
  5. बृ्हस्पतिवार को अष्टमी तिथि.
  6. शुक्रवार को नवमी तिथि.
  7. शनिवार को सप्तमी तिथि.

#विशेष राजयोग - Vishesh Rajyog
जैमिनी ज्योतिष में कुछ विशेष राजयोग होते हैं, जो निम्नलिखित हैं :-

चन्द्रमा और शुक्र एक साथ हों तब राजयोग बनता है.

यदि चन्द्रमा पर कई ग्रहों की दृ्ष्टि हो तो एक उत्तम राजयोग बनता है.

अब इन राजयोगों को जन्मकुण्डली के साथ नवांश कुण्डली में भी देखे. यदि नवांश कुण्डली में योग जन्मकुण्डली की तुलना में कम बन रहें हैं तो फलों में कमी रहेगी.

यदि अमात्यकारक जन्मकुण्डली या नवांश कुण्डली में आत्मकारक से केन्द्र या त्रिकोण या 11वें भाव में स्थित हो तो जातक अपने जीवन में कम संघर्ष से ही किसी अच्छे पद को प्राप्त करने में सफल होता है.

यदि जन्मकुण्डली या नवांश कुण्डली में आत्मकारक और अमात्यकारक परस्पर छ्ठे, आठवें या बारहवें भाव में बैठे हों तो जातक को पद प्राप्त करने में संघर्षों का सामना करना पडे़गा.

इसके अतिरिक्त यह भी देखें कि कोई कारक पीडि़त तो नहीं है. यदि कारक पीडि़त हों तो बाधाएं सम्मुख आएंगी.

यदि कारकों पर शुभ ग्रहों की दृ्ष्टि हो तो उनके शुभ फलों में वृ्द्धि हो जाएगी.

#विषयोग - Vishayog
सिद्धि योग वार तथा नक्षत्रों के योग से बनते हैं परन्तु जब योग बनाने वाले वार तथा नक्षत्रों के साथ कुछ विशेष तिथियां भी पड़ जाती हैं तब ये शुभ सिद्धि योग अशुभ योग या विषयोग में बदल जाते हैं. इन सात वारों का वर्णन निम्नलिखित है.

रविवार के दिन हस्त नक्षत्र के साथ पंचमी तिथि पड़ने से विषयोग बनता है.

सोमवार के दिन मृगशिरा नक्षत्र के साथ षष्ठी तिथि पड़ने से विषयोग बनता है.

मंगलवार के दिन अश्विनी नक्षत्र के साथ सप्तमी तिथि होने पर विषयोग बनता है.

बुधवार के दिन अनुराधा नक्षत्र के साथ अष्टमी तिथि के योग से विषयोग होता है.

बृहस्पतिवार के दिन पुष्य नक्षत्र के साथ नवमी तिथि होने पर विषयोग बनता है.

शुक्रवार के दिन रेवती नक्षत्र के साथ दशमी तिथि होने पर विषयोग बनता है.

शनिवार के दिन रोहिणी नक्षत्र के साथ एकादशी तिथि होने पर विषयोग बनता है.

उपरोक्त योगों के बिना कई शुद्ध सर्वार्थ सिद्धि नक्षत्रs भी कुछ कार्यों में निषेध माने गए हैं. जैसे मंगल तथा अश्विनी नक्षत्र का योग होने पर भी इसे गृहप्रवेश के लिए हमेशा त्याग दें.

शनिवार के दिन रोहिणी नक्षत्र होने पर एक शुभ योग बनता है परन्तु फिर भी इस योग को यात्रा के लिए त्याग दें.

गुरुवार के दिन पुष्य नक्षत्र होने पर शुभ योग बनता है परन्तु विवाह के लिए यह वर्जित नक्षत्र है.

#विष्कुंभ योग - Vishkumbh Yog
इस योग में जन्म लेने वाले व्यक्ति रूपवान, भाग्यवान, बुद्धिमान, चतुर, धनवान, पशु युक्त, स्त्री, मित्र और पुत्र का सुख प्राप्त करता है. जातक स्वतंत्रता प्रेमी होता है.

#वृश्चिक राशि - Vrishik Rashi[Scorpio Sign]
यह राशि भचक्र और कालपुरुष की आठवीं राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह मंगल है. इस राशि का चिन्ह बिच्छू है. इस राशि का रंग कबरैला है. अन्य मत से सुवर्ण और सम भी है. इस राशि के अधिकार क्षेत्र में गुह्येन्द्रिय, मल और मूत्राशय का हिस्सा आता है. वृ्श्चिक राशि दंभी, जिद्दी, हठी, दृ्ढ़ निश्चयी, स्पष्टवादी, निर्मल ह्रदय वाली है. यह राशि पंचम नवांश में अपना पूरा प्रभाव दिखाती है.

वृ्श्चिक राशि स्त्री संज्ञक राशि है. स्थिर राशि है. सम राशि है. यह स्वभाव से सौम्य राशि है. इस राशि की जाति ब्राह्मण है. इस राशि का तत्व जल है. यह शीर्षोदय राशि है. शुष्क और निर्जल राशि है. यह राशि दिन में बली होती है. इस राशि का शरीर् छोटा है. यह बहुपद राशि है. इस राशि में सरीसृ्प व रेंगने वाले जीव आते हैं. यह तमोगुणी राशि है. इस राशि की कफ़ प्रवृ्ति है. यह राशि बहु संतति है. यह मूल राशि है.

इस राशि का निवास स्थान जल और भूमि दोनों में है जहाँ छेद या खोखला हिस्सा हो. इस राशि की उत्तर दिशा है. यह राशि मलय देश अर्थात त्रिचनापल्ली और कोयम्बटूर की स्वामी है. यह राशि आश्विन मास में शून्य रहती है. इस राशि के अन्य नाम कौर्प्य, कौज, अलि, अष्टम, कीट हैं. इस राशि में विशाखा नक्षत्र का एक चरण, अनुराधा नक्षत्र के चार चरण, ज्येष्ठा नक्षत्र के चार चरण आते हैं. इस राशि में तो, ना, नी, नू, ने, नो, या, यी, यू चरणाक्षर आते हैं.

इस राशि के पीड़ित होने पर पांडु रोग, तापतिल्ली रोग, जननेन्द्रियों से संबंधित रोग, मल - मूत्र से संबंधित रोग हो सकते हैं.

#वृ्द्धि योग - Vriddhi Yog
इस योग में जन्मा व्यक्ति क्रय - विक्रय के काम से धनवान, दीर्घायु, पुत्रों व मित्रों से युक्त, भोगी, बलवान, पराक्रमी, सभी चीजों के संग्रह में चतुर होता है. विद्वानों जैसे बोलने वाला, अपने नियम से भाग्य की वृ्द्धि करने वाला होता है.

#वृ्ष राशि - Vrish Rashi[Tauras Sign]
वृ्ष अर्थात बैल के समान आकृ्ति. यह भचक्र और कालपुरुष की दूसरी राशि है. चौपाया राशि है. इसका स्वामी ग्रह शुक्र है. इसके अंतर्गत शरीर का नेत्र से गर्दन तक का भाग आता है अर्थात पूरा चेहरा इस राशि के अधिकार क्षेत्र में है. इस राशि का रंग सफेद है. स्त्री संज्ञक राशि है. स्वभाव से स्थिर राशि है. सम राशि है. सौम्य है. इस राशि का वर्ण वैश्य है. भूमि तत्व है. दक्षिण दिशा है. यह पृ्ष्ठोदय राशि है. शुष्क राशि है पर सजल है. इस राशि में रजोगुण है. रात्रि बली है. इस राशि की वात प्रवृ्ति है. यह मध्यम संतति राशि है.

वृ्ष राशि का निवास स्थान ग्राम है परन्तु मतान्तर से जल के नीचे की भूमि या चरागाह इस राशि के निवास स्थान हैं. धातु/मूल में से मूल है. यह छोटे कद की राशि है. यह कर्नाटक प्रदेश मैसूर की स्वामी है. यह राशि ज्येष्ठ मास में शून्य रहती है. इस राशि का स्वभाव पांचवें नवांश में पूरी तरह से प्रकट होता है.

इस राशि में कृ्तिका नक्षत्र के तीन नक्षत्र के तीन चरण,रोहिणी नक्षत्र के चार चरण और मृ्गशिरा नक्षत्र के दो चरण आते हैं. इस राशि में इ,उ,ए,ओ,वा,वी,वू,वे वो चरणाक्षर आते हैं, वृ्ष राशि के अन्य नाम उक्षा,गो,ताबुरि,शुक्रभ,गोकुल है. इस राशि के पीड़ित होने पर शरीर में त्रिदोष हो जाते हैं. अग्नि भय और शस्त्र भय रहता है.

वृ्ष राशि स्वार्थी राशि है पर सोच-समझकर काम करने वाली है. मेहनती है और सांसारिक कार्यों में दक्ष राशि है.

#वेध दोष - Vedh Dosh
वेध दोष का त्याग सर्वत्र किया जाता है. पंचशलाकासप्तशलाका के द्वारा वेध दो प्रकार से होता है. पाँच सीधी रेखाओं से और पाँच आडी़ रेखाओं से पंचशलाका चक्र बनता है. इसी प्रकार सात रेखाएँ सीधी और सात आडी़ रेखाओं से सप्तशलाका चक्र बनता है. पंचशलाका वेध का विचार विवाह, वधु प्रवेश आदि में किया जाता है. इसके अतिरिक्त विवाह में जो कार्य होते है उनमें सप्तशलाका चक्र के वेध का विचार किया जाता है. इसमें नक्षत्रों का वेध होता है. यदि वे एक ही रेखा पर पड़ते हों.

पंचशलाका चक्र


सप्तशलाका चक्र



इसमें नक्षत्रों का वेध होता है यदि वे एक ही रेखा पर पड़ते हों. विवाह नक्षत्र का जिस नक्षत्र के साथ वेध हो, उस नक्षत्र में यदि कोई ग्रह स्थित हो तो वेध माना जायेगा.

#वेध नक्षत्र - Vedh Nakshatra
सात रेखाएँ पडी़ व सात रेखाएँ खडी़ खींचे. ईशान कोण से शुरु कर के 28 नक्षत्रों को स्थापित करें. एक रेखा पर पड़ने वाले नक्षत्र यदि ग्रह युक्त हों वेध होता है.

कृ्त्तिका व श्रवण.

रोहिणी व अभिजित.

मृ्गशिरा व उत्तराषाढा़.

आर्द्रा व पूर्वाषाढा.

पुनर्वसु व मूल.

पुष्य व ज्येष्ठा.

अश्लेषा व अनुराधा.

भरणी व मघा.

अश्विनी व पूर्वाफाल्गुनी.

रेवती व उत्तराफाल्गुनी.

हस्त व उत्तराभाद्रपद.

चित्रा व पूर्वाभाद्रपद.

स्वाति व शतभिषा.

विशाखा व धनिष्ठा.

इन नक्षत्रों का आपस में वेध होता है. पाप ग्रह का वेध, पापयुक्त नक्षत्र, पापग्रह के वर्तमान नक्षत्र से अगला व पिछला नक्षत्र पीडि़त होता है. इनका फल अशुभ होता है. पीडि़त नक्षत्र से नक्षत्र के पदार्थ, नक्षत्र युक्त भाव, जन्म नक्षत्र वाला व्यक्ति अशुभ फल पाता है.

#व्यतिपात योग - Vyatipat Yog
इस योग में जन्मा जातक मायावी, उदार, माता - पिता की आज्ञा का पालन करने वाला होता है. जातक का चित्त कठोर होता है. रोगी होता है. दूसरों के काम को बिगाड़्ने वाला होता है. इस योग में जन्मा जातक बहुत ही कष्ट से जीता है. यदि वह जीता रहे तब उत्तम मनुष्य बनता है.

#व्याघात योग - Vyaghat Yog
इस योग में जन्म लेने वाला जातक क्रूर स्वभाव का होता है. घातक, दयाहीन होता है. हमेशा असत्य कहता है. सब कार्यों में चतुर होता है तथा अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध होता है. इस योग का जातक झूठा विवाद करने वाला होता है.

#व्यापार सहम - Vyapar Saham
दिन व रात्रि वर्ष प्रवेश दोनों के लिए :- मंगल - बुध + लग्न

#स्वाति नक्षत्र - Swati Nakshatra
स्वाति नक्षत्र तुला राशि में 6 अंश 40 कला से 20 अंश तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 30 अंश 44 कला 18 विकला उत्तर और विषुवत वृ्त्त से 19 अंश 11 कला 53 विकला उत्तर में स्थित है. यह एकल तारा नक्षत्र है. इसका तारा लाल रंग या नारंगी रंग की बडी़ मणि जैसे चमकता है.

निरायन सूर्य 23 अक्तुबर को स्वाति नक्षत्र में प्रवेश करता है. अत: अक्तुबर के अंतिम सप्ताह में सूर्योदय के समय स्वाति नक्षत्र, पूर्वी क्षितिज पर उदय होता है. मई के अंत व जून मास के आरम्भ में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के बीच स्वाति नक्षत्र शिरो बिन्दु पर होता है. यह सारा नक्षत्र शुक्र की तुला राशि में स्थित है. स्वाति नक्षत्र का स्वामी राहु ग्रह है.

स्वाति का अर्थ है शुभ नक्षत्र पुंज. चन्द्रमा के स्वाति नक्षत्र में होने पर हुई वर्षा को बहुत शुभ व 'अमृ्त वर्षा' माना जाता है. एक मान्यता के अनुसार इस वर्षा की बूँद सीप में मोती और बाँस में वंशलोचन बनाती है. 'नन्हे पौधे की शाखाओं का हवा में झूलना स्वाति नक्षत्र का प्रतीक चिह्न माना जाता है. वायु में हिलना-डुलना, अस्थिरता, चंचलता, उद्विग्नता व भ्रमण प्रियता को दर्शाती है. नन्हे पौधों की शाखाएँ कोमलता व अनिर्बलता को दर्शाती है.

हवा का चलना जड़ता को मिटाकर गति प्रदान करता है. यहाँ वायु का विनाशकारी रुप नहीं है अपितु हवा का मन्द व सुखदायी झोंका है. इसका अर्थ है - स्वाती नक्षत्र जीवन को सुख व शान्तिपूर्ण ढ़ग से चलाता है. स्वाति नक्षत्र के देवता पवन देव या वायु को माना गया है. पवन देव सभी प्राणियों में प्राण वायु बन कर रहते हैं. कहीं - कहीं इस स्वाती नक्षत्र को लाल मणि या मंगल के रत्न मूँगे द्वारा दर्शाया गया है. हवा चलने पर गर्मी कम हो जाती है और मौसम खुशनुमा हो जाता है.

तुला की चर राशि में स्थित स्वाति नक्षत्र भ्रमणप्रिय व पर्यटन प्रेमी बनाता है. स्वाती नक्षत्र का संबंध विद्या की देवी सरस्वती से भी है. देवी सरस्वती को सभी प्रकार की विद्या प्रदान करने वाली देवी माना गया है. इस नक्षत्र का स्वामी राहु भी विकसित जीवात्मा को ज्ञान पिपासु या जिज्ञासु बनाता है.

स्वाति नक्षत्र की जाति अंत्यज या कसाई मानी गै है. इसके पीछे राहु की विनाशकारी शक्ति को उजागर किया गया है. हवा यदि जीवन देती है तो आँधी, तूफान और चक्रवात जन - धन की भी हानि करते हैं. स्वाति नक्षत्र को कसाई मानना स्वाति के पाप प्रभाव को दर्शाता है. स्वाति को स्त्री नक्षत्र माना गया है क्योंकि स्वाति, तुला राशि में आता है ओर तुला राशि का स्वामी शुक्र है जो स्त्री संज्ञक ग्रह है. इसी प्रकार स्वाति का गीत, संगीत और विद्या की देवी सरस्वती से संबंध भी इसे स्त्री नक्षत्र बनाता है.

विद्वानों ने वक्ष या छाती को स्वाति का अंग माना है. उनके मतानुसार श्वाँस तंत्र व ह्रदय की धड़कन में वायु का योगदान अधिक रहता है. कुछ विद्वान प्राण या ऊर्जाशक्ति के प्रवाह को स्वाति नक्षत्र के देवता पवन से जोड़ कर मुख, नासिका, कंठनली, वक्ष, उदर, गुदा व मस्तिष्क सभी अंगों पर स्वाति का प्रभाव देखते हैं. स्वाति को कफ़ प्रधान माना गया है. क्योंकि यह नक्षत्र तुला राशि में है जिसे कफ़ प्रधान माना जाता है.

इस नक्षत्र को दक्षिण दिशा में अधिक प्रभावी माना गया है. कुछ विद्वान दक्षिण पूर्व आग्नेय दक्षिण, दक्षिण पश्चिम नैऋत्य कोण तथा पश्चिम दिशा को जोड़कर बनी चाप को स्वाति की दिशा मानते हैं. इस नक्षत्र का स्वामी राहु तथा राशीश शुक्र होने से राजसिक ऩात्र माना जाता है. कुछ विद्वानों ने इसे अग्नि तत्व नक्षत्र माना है. उनके मतानुसार अग्नि ही प्राण शक्ति व ऊर्जा देती है. इस नक्षत्र को देवगण नक्षत्र माना जाता है. क्योंकि इसका संबंध पवन देव और विद्या की देवी सरस्वती से है.

स्वाति तिर्यक मुख नक्षत्र है. यह तुला राशि में स्थित होने से संतुलन बनाना इसकी प्रकृ्ति है. यह चर नक्षत्र है. गतिशीलता या हवा से बातें करना इसके स्वभाव में शामिल हैं. अप्रेल में पड़ने वाले चैत्र मास के अंतिम 9 दिनों को जो कभी मई के आरम्भ में आते हैं, उन्हे स्वाति नक्षत्र का मास माना जाता है. कृ्ष्ण व शुक्ल पक्ष की सप्तमी को स्वाति ऩक्षत्र की तिथि माना जाता है.

स्वाति नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'रू' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'रे' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'रो' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'ता' है. स्वाति नक्षत्र को महिष भैंस योनि माना जाता है. विद्वानों ने स्वाति नक्षत्र को महर्षि मरीचि का वंशज माना है. मरीचि का अर्थ - प्रकाश की किरण है. यह दैवीय प्रकाश है. स्वाति ऩात्र सभी वस्तुओं का केन्द्र बिन्दु या संतुलन बिन्दु दर्शाता है. यह जीवन, समाज व संसार का मध्य बिन्दु बनता है. विकास और संकुचन के मध्य की साम्यावस्था स्वाति नक्षत्र दिखाता है.

जिस प्रकार कोई ग्रह दिशा परिवर्तन से पहले कुच समय के लिए स्थिर या साम्यावस्था में होता है, कुछ ऎसा ही स्वाति नक्षत्र में भी होता है. स्वाति नक्षत्र का देवता पवन हमारी देह में पंच प्राण बन कर वास करता है यही जीवन शक्ति और प्राण शक्ति है.

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