#कक्षा - Kaksha[Orbit]
प्रत्येक राशि 30 अंश की होती है. 30 अंश को आठ बराबर भागों में बांटने पर आठ कक्षाएं बनती है. इस प्रकार एक कक्षा का मान 3 अंश(degree) 45 मिनट होता है. किसी भी व्यक्ति की कुण्डली में प्रत्येक ग्रह अपनी एक निश्चित कक्षा में, कुण्डली में अपनी मूल स्थिति से निश्चित भाव में बिन्दु प्रदान करता है. कक्षा किसी भी राशि का एक निश्चित भाग होता है. प्रत्येक कक्षा का स्वामी एक निश्चित ग्रह होता है. राशि की कक्षाओं के स्वामियों का क्रम निश्चित होता है. सबसे पहले ऊपर की कक्षा में शनि को लिखा जाता है, फिर बृ्हस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्रमा और अंत में लग्न को लिखा जाता है. राशि की कक्षाओं का क्रम निश्चित है.

प्रस्थार चक्र, अष्टकवर्ग, भिन्नाष्टकवर्ग और सर्वाष्टकवर्ग सभी की तालिका बनाने में ग्रहों का क्रम उपरोक्त तरीके से ही होगा अर्थात कक्षाओं के स्वामी क्रमश: शनि, बृ्हस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्रमा और लग्न होते हैं.

#कन्या राशि - Kanya Rashi[Kanya Rashi]
यह भचक्र और कालपुरुष की छठी राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह बुध है. इस राशि में कई रंगों का मिश्रण है अर्थात बहुरंगी राशि है. इस राशि में एक कन्या नाव में बैठी है. एक हाथ में लालटेन और दुसरे हाथ में गेहूँ की बालियाँ लिए हुए है. इस राशि के अधिकार क्षेत्र में कमर, पेट के अन्दर की आँतें, नाभि आते हैं. यह द्विस्वभाव राशि है. सम राशि है. स्त्री संज्ञक राशि है. सौम्य राशि है.

इस राशि का वर्ण वैश्य है. भूमि तत्व है. शीर्षोदय राशि है. इसमें जल की मात्रा भी है. यह राशि दिन में बली होती है. शरीर मध्यम है. मनुष्य है. द्विपदी राशि है. इस राशि का निवास स्थान पर्वत है अन्य मत से इसका निवास स्थान वह जमीन है जिसमें अन्न व जल हो. यह अल्प या बन्ध्या राशि है. जीव राशि है. इस राशि की वात प्रवृ्त्ति है.

इस राशि की दक्षिण दिशा है. यह राशि केरल देश की स्वामी है. यह राशि भाद्रपद मास में शून्य रहती है. इस राशि के अन्य नाम पाथोन, षष्ठी, अबला, तन्वी, रमणी, तरुणी हैं. इस राशि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के तीन चरण, हस्त नक्षत्र के चार चरण, चित्रा नक्षत्र के दो चरण आते हैं. इस राशि में टो, पा, पी, पू, ष, ण, ठ, पे, पो चरणाक्षर आते हैं.

यह राशि मिथुन राशि के स्वभाव जैसी है पर यह अपने मान और उन्नत्ति पर पूरा ध्यान रखती है. तर्क-वितर्क में दक्ष, विनोदी स्वभाव इस राशि के अन्य गुण हैं. इस राशि का नवम नवांश में पूरा प्रभाव दिखाई देता है. इस राशि के पीड़ित होने पर पेट से संबंधित रोग, कमर से संबंधित रोग हो सकते हैं. राशि व स्वामी ग्रह बुध बहुत पीड़ित हैं तब स्त्रियों से होने वाले रोग, वीर्य संबंधी रोग हो सकते हैं तथा व्यक्ति का नैतिक पतन हो सकता है.

#कम्बूल योग - Kambul Yog
यह योग फारसी शब्द कम्बूल से बना है. इस योग के 32 भेद हैं.

वर्ष कुण्डली में यदि लग्नेश और कार्येश में परस्पर इत्थशाल हो और इन दोनों से या दोनों में से किसी एक से भी चन्द्रमा इत्थशाल करता हो तो कम्बूल योग बनता है. चन्द्र शीघ्रगामी ग्रह है, अत: यह योग कबूल अर्थात स्वीकृ्ति सूचक योग है. यह एक शुभ योग है.

#करण - Karan
यह पंचांग का पाँचवाँ अंग है. करण तिथि का आधा भाग है. तिथि के पूर्वार्द्ध अर्थात पहले आधे भाग में एक करण और उत्तरार्द्ध अर्थात तिथि के दूसरे भाग में दूसरा करण होता है. इस प्रकार 1 तिथि में 2 करण होते है. सूर्य और चन्द्र के बीच 6 डिग्री का अन्तर पड़ने पर 1 करण होता है.कुल 30 तिथियाँ होती हैं तथा 60 करण होते हैं. एक दिन में 2 करण होते हैं. किन्तुघ्न पहला करण है. किन्तुघ्न से गिनने पर पहले सात करणों की आठ बार क्रम में पुनरावृ्त्ति है. अन्त में शेष तीन करण आते हैं. अन्त के चार करण स्थिर हैं. पहले 7 करणों की पुनरावृ्त्ति आठ बार होती है. करणों के नाम निम्नलिखित हैं :-

बव

बालव

कौलव

तैतिल

गर

वणिज

विष्टि

शकुनि

चतुष्पद

नाग

किन्तुघ्न


#कर्क राशि - Kark Rashi[Cancer Sign]
यह भचक्र और कालपुरुष की चतुर्थ राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह चन्द्रमा है. इसका रंग गुलाबी है. इस राशि का चिन्ह केकडा़ या कर्कट है जो समुद्र के किनरे वाली गीली रेत और दलदली जमीन में पाया जाता है. ह्रदय, मन और छाती इस राशि के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. इस राशि का निवास स्थान वन है परन्तु मतान्तर से जमीन में पडी़ चौडी़ दरार या दलदली जमीन है. यह चर राशि स्त्री संज्ञक है. सम है. स्वभाव से सौम्य है. इस राशि का वर्ण ब्राह्मण है. तत्व जल है.

इस राशि की उत्तर दिशा है. इस राशि की उत्तर दिशा है. पृ्ष्ठोदय राशि है. पूर्ण जल राशि है. यह सतोगुणी राशि है. यह राशि रात्रि में बली होती है. इस राशि का शरीर मोटा होता है. यह बहु पद राशि है. यह कीट और जलचर राशि है. यह बहु संतान राशि है. यह राशि धातु रुप है. इस राशि का चोल देश है.

इस राशि की प्रवृ्त्ति सांसारिक उन्नति की ओर रहती है. लज्जावान राशि है. कोई भी कार्य करने में स्थिरता रहती है. यह समय अनुयायी की सूचक राशि है. यह राशि पहले नवांश में पूर्ण प्रभाव दिखाती है.

इस राशि के पीडि़त होने पर फेफडों से संबंधित रोग, सर्दी-जुकाम हो सकते हैं. साथ ही अगर यह राशि और राशि स्वामी चन्द्रमा बहुत पीड़ित हैं तब पागलपन, वातरोग हो सकते हैं. साथ ही हर काम में अरुचि हो सकती है.

इस राशि के अन्य नाम चान्द्र, कुलीर, कर्काटक, कर्कट आदि हैं. यह राशि पौष मास में शून्य रहती है. इस राशि में पुनर्वसु नक्षत्र का एक चरण, पुष्य ऩक्षत्र के चार चरण और अश्लेषा नक्षत्र के चार चरण आते हैं. इस राशि में ही, हू, हे हो, डा, डी, डू, डे, डो चरणाक्षर आते हैं.

#कर्त्तरी दोष - Kartari Dosh
लग्न से द्वादश भाव में मार्गी पाप ग्रह द्वितीय में वक्री पाप ग्रह एक साथ हों तो कर्त्तरी दोष होता है. कर्त्तरी का अर्थ है कैंची. कर्त्तरी दोष, कैंची की दो शाखाओं की तरह लग्न के शुभ प्रभाव को काट देती है.

लग्न या चन्द्रमा के दोनों ओर मार्गी पाप ग्रह हों या बारहवें वक्री व दूसरे मार्गी हों तब कर्त्तरी दोष नहीं होता है. लेकिन लग्न व चन्द्रमा का पाप मध्यत्व रहता है. पाप मध्यत्व कर्त्तरी से कम अशुभ होता है. कर्त्तरी दोष लग्न व चन्द्रमा दोनों से देखना चाहिए.

#कलांवर योग - Kalanvar Yog
वर्ष कुण्डली में यदि व्यक्ति का जन्म लग्न ही वर्ष कुण्डली के लग्न में आ जाए अर्थात जातक की जन्म कुण्डली में जो लग्न राशि है वही लग्न राशि उसकी वर्ष कुण्डली में उदय होती है तब ऎसे वर्ष को कलांवर अथवा एकोदय या द्विजन्मा लग्न कहते हैं. यह वर्ष व्यक्ति के लिए अनुकूल नहीं होता है.

इस वर्ष में जातक को वर्ष भर कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. विविध रोग हो सकते हैं. आर्थिक दृष्टि से कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है.

#कलि सहम(तनाव) - Kali Saham [Tension]
दिन का वर्ष प्रवेश :- बृहस्पति - मंगल + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- मंगल - बृहस्पति + लग्न

#काबिल योग - Kabil Yog
वर्ष कुण्डली के दूसरे भाव में चन्द्रमा, बुध, गुरु और शुक्र ये चारों ग्रह बैठे हों तथा 3,6,9,12 भावों में सूर्य, राहु, मंगल और शनि जैसे पाप ग्रह हों तो उस वर्ष में कुण्डली में काबिल योग बनता है. यह योग वर्ष कुण्डली का महत्वपूर्ण योग है. यह शुभ योग है.

जिस वर्ष में काबिल योग बनता है, उस वर्ष में व्यक्ति को लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, सम्मान में वृ्द्धि होती है. नौकरी में उन्नति होती है. सरकार से श्रेष्ठता प्राप्त होती है. व्यक्ति राजनीति में रूचि रखता हो तो उस वर्ष चुनाव में विजय हासिल करता है.

#कारकाँश लग्न - Karakansha Lagna
जैमिनी ज्योतिष में आत्मकारक ग्रह नवांश कुण्डली में जिस राशि में स्थित है वो राशि जन्म कुण्डली में कारकाँश लग्न कहलाती है. कारकाँश लग्न का भविष्यवाणी में बहुत महत्व है.जिस भाव में कारकाँश राशि आती है, उस भाव को लग्न बनाकर कुण्डली का अध्ययन किया जाता है. इसे हम कारकाँश कुण्डली भी कह सकते हैं.

#कार्य सिद्धि सहम - Karya Siddhi Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- शनि - सूर्य + वर्ष कुण्डली में सूर्य राशि स्वामी

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- शनि - चन्द्र + वर्ष कुण्डली में चन्द्र राशि स्वामी

#काल दशा - Kaal dasha
सूर्योदय या सूर्यास्त के समय जन्म हो तो यह दशा कुण्डली में लागू होती है. नियम यह है कि जन्म सूर्योदय या सूर्यास्त के 2 घण्टे पहले या 2 घण्टे बाद में हुआ हो. इस प्रकार प्रात: सन्ध्या या सांय सन्ध्या 4 घण्टे की होती है. प्रात: की संध्या का नाम खण्डा है तथा शाम की संध्या का नाम मुग्धा या सुधा है. सबसे पहले सूर्योदय एवं सूर्यास्त का समय नोट करें किस भाग में जन्म है. जन्म अगर प्रात: काल का है तो 4 से गुणा और संख्या प्राप्त हो उसे 15 से भाग दें. अगर जन्म शाम को है तो 2 से गुणा और 15 से भाग दें. भाग फल दशा वर्ष होगें.

#कुंडली - Kundali
कुंडली किसी समय विशेष और स्थान विशेष पर बनाया गया आसमान का नक्शा है जो राशि चक्र के बारह हिस्सों का चित्रण करता है. पूर्व में उदय होने वाली राशि को प्रारंभिक बिन्दु मानकर कुंडली किसी निश्चित समय और स्थान पर राशि चक्र में ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति दर्शाती है. इस आसमान के नक्शे की आवश्यकता किसी शिशु के जन्म के समय या फिर किसी प्रश्न, घटना या विचार के समय पड़ती है.










#कुंभ राशि - Kumbh Rashi[Aquarius Sign]
यह भचक्र और कालपुरुष की ग्यारहवीं राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह शनि है. इस राशि में एक मनुष्य पानी का एक घडा़ कन्धे पर लिये हुए है. इस राशि का रंग नेवले के रंग जैसा है. यह बहुत ही विचारशील राशि है. यह राशि शांत चित्त से नई बात पैदा करने वाली है. धर्म के प्रति आस्था रखने वाली है. यह राशि पंचम नवांश में अपना पूर्ण प्रभाव दिखाती है. इस राशि के अधिकार में शरीर के घुटने के पीछे का भाग अर्थात पिंडलियाँ आती हैं. टाँग, रक्त के बहाव पर भी इस राशि का अधिकार है. यह मज्जा तन्तु और नेत्र पर भी प्रभाव डालती है.

यह पुरुष संज्ञक राशि है. इस राशि का वर्ण शुद्र है. यह स्थिर राशि है. यह विषम राशि है. स्वभाव से क्रूर है. इस राशि का तत्व वायु है. यह शीर्षोदय राशि है. इसमें जल की मात्रा भी है. यह तमोगुणी राशि है. यह राशि दिन में बली होती है. इस राशि की प्रवृ्त्ति सम है अर्थात इसमें तीनों प्रवृ्त्ति हैं वात, पित्त और कफ़. इस राशि का शरीर मध्यम है. यह द्विपदी राशि है. इस राशि की संतति मध्य है. यह मूल राशि है.

इस राशि का निवास स्थान जल में है पर मतान्तर से कुम्हार के घर में बर्तन बनाने वाली जगह पर है. यह राशि चैत्र मास में शून्य रहती है. इस राशि की पश्चिम दिशा है. यह राशि यवन देश अर्थात कश्मीर से काबुल तक की स्वामी है. इस राशि के अन्य नाम ह्रद्रोग, घट, तोयघर है. इस राशि में धनिष्ठा नक्षत्र के दो चरण, शतभिषा नक्षत्र के चार चरण और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के तीन चरण आते हैं. इस राशि में गू, गे, गो, सा, सी, सू, से, सो, दा चरणाक्षर आते हैं.

इस राशि पीड़ित होने पर पिंडलियों, टाँगों, रक्त और मज्जा संबंधित रोग हो सकते हैं. साथ ही कफ़, ज्वर और क्षय रोग भी हो सकते हैं.

#कुण्डली में राजयोग - [Rajyog In The Kundli]
कुण्डली में जब किसी भाव में केन्द्र और त्रिकोण भाव के स्वामी एक साथ स्थित हों या एक-दूसरे पर दृ्ष्टि डाल रहें हों या एक-दूसरे से राशि परिवर्तन कर रहें हैं तब राजयोग बनता हैं. राजयोग में शामिल ग्रह की दशा - अन्तर्दशा आने पर जातक को पूरे फल अनुकूल मिलते हैं. अगर राजयोग में शामिल ग्रह खराब भावों में हैं तब फल मिलने में कमी रह सकती है.

#कुत्थ योग - Kuttha Yog
वर्ष कुण्डली में लग्न में स्थित ग्रह बलवान होता है. इनसे 2,3,4,5,7,9,10 तथा 11वें भाव में स्थित ग्रह उत्तरोत्तर हीनबली ग्रह कहलाते हैं. इसी प्रकार स्वराशि, स्वहद्दा, स्वद्रेष्काण, स्वनवांश, हर्षित और श्रेष्ठ विंशोपक बल से सम्पन्न ग्रह उत्तरोत्तर बली कहलाता है.

यदि वर्ष कुण्डली में लग्नेश तथा कार्येश दोनों ही ग्रह बली हों तब कुत्थ योग बनता है. यह शुभ योग है.

#कुल,अकुल और कुलाकुल नक्षत्र - Kul, Akul And Kulakul Nakshatra
नरपति जयचर्या में बताया गया है कि अश्विनी से गिनने पर आर्द्रा व अभिजित नक्षत्र को छोड़कर शेष सब सम संख्या वाले नक्षत्र कुल संज्ञक हैं. शतभिषा को छोड़कर सब विषम संख्यक अकुल ऩक्षत्र हैं.


कश्यप जी ने कहा है कि कुल नक्षत्रों में उत्पन्न व्यक्ति अपने खानदान में अग्रगण्य होते हैं. माता-पिता के स्तर से काफी आगे जाते हैं. अकुल नक्षत्रों में जातक माता-पिता कि सम्पत्ति पर ही मूछों पर ताव देते हैं, मुश्किल से अपने पारम्परिक स्तर को बनाये रखते है. कुलाकुल नक्षत्रों में निजी तरक्की, उन्नति, कमाई तथा पैतृ्क सहायता मिली-जुली रहती है.

#कुलाब योग - Kulab Yog
वर्ष कुण्डली में यदि तुला, धनु या कुम्भ राशि में शुक्र स्थित हो और वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर या मीन राशि वर्ष कुण्डली के लग्न में हो तो कुलाब योग बनता है.

यह योग शुभ फल देने वाला होता है. जातक के अनुकूल परिस्थितियाँ रहती हैं. यह वर्ष मुकदमों में जीत हासिल कराता है. शत्रुओं का नाश होता है. जातक को अपनी पत्नी से विशेष तौर पर सुख की प्राप्ति होती है. जातक के सभी कार्य सफल होते हैं.

#कुलाली योग - Kulali Yog
यदि वर्ष कुण्डली के छठे भाव में क्रूर ग्रह हों और आठवें भाव में शुभ ग्रह हों तथा पंचम या नवम भाव में राहु, चन्द्रमा तथा गुरु होऔ तब तो कुलाली योग बनता है.

जिस जातक की कुण्डली में यह योग बनता है, उस वर्ष उस जातक को अपने कार्य स्थल पर उन्नति मिलती है. यदि कोई मुकदमा चल रहा हो तो उसमें जीत मिलती है. व्यापार करते हैं तो व्यापार में वृद्धि होती है. यह वर्ष सभी प्रकार से सुख सम्पत्ति प्रदान करने वाला होता है. जातक को सभी ओर से शुभ फल मिलते हैं.

#कुल्ला योग - Kulla Yog
यदि लग्न का स्वामी लग्न में हो और भाग्य का स्वामी भाग्य भाव में बैठकर लग्न को देखता हो तो कुल्ला योग बनता है.

जिस वर्ष यह योग बनता है वह वर्ष जातक के लिए शुभ रहता है. इस योग के बनने पर जातक के अधूरे कार्य पूरे होते हैं. जातक को अपनी नौकरी में पदोन्नति तथा आर्थिक लाभ की प्राप्ति होती है.


#कृ्तिका नक्षत्र - [Kritika Nakshatra]
कृ्तिका नक्षत्र का प्रथम चरण मेष राशि में 26 डिग्री 40 मिनट से 30 डिग्री तक होता है. बाकि तीन चरण 0 डिग्री से 10 डिग्री तक वृ्ष राशि में होते हैं. कृ्तिका नक्षत्र को सौर ऊर्जा का मूल स्त्रोत या बीज माना जाता है. यह नक्षत्र सात तारों का झुंड या समूह है. मई मास के द्वितीय सप्ताह में यह प्रात: काल सूर्य के साथ पूर्व दिशा में दिखाई देता है. जबकि बडे़ दिन व नव वर्ष के बीच दिसम्बर-जनवरी में रात्रि 10 बजे यह शिरो बिन्दु पर दिखता है. निरायन सूर्य 9-10 मई को कृ्तिका नक्षत्र में प्रवेश करता है. यह क्रान्ति वृ्त्त से 4 अंश 3 कला 2 विकला उत्तर में है. कार्तिक पूर्णिमा को चन्द्रमा कृ्तिका नक्षत्र में होता है.

कृ्तिका शब्द का अर्थ है कार्य सिद्ध करने वाली महिला. कृ्त का अर्थ है अनुष्ठित, निर्मित या क्रियान्वित. कृ्तिका नक्षत्र के बारे में एक कथा है कि पार्वती नन्दन पर्वत से नीचे गिरे जिन्हें योग सिद्ध तपस्विनियों ने पाल-पोस कर बडा़ किया. इन्ही के कारण पार्वती के पुत्र का नाम कार्तिकेय या कृ्तिका पुत्र पडा़. अग्नि को कृ्तिका नक्षत्र का देवता माना जाता है. अग्नि शक्ति व ऊर्जा का प्रतीक है.

कृ्तिका नक्षत्र का प्रतीक चिह्न कुल्हाडी़, छुरी या तेज धार वाले चाकू से दर्शाया गया है. काटकर टुकडे़ करना, भीतर या गहरा प्रहार करना कृ्तिका नक्षत्र के अनुकूल है. कहीं- कहीं अग्नि शिखा व लपट को भी कृ्तिका का प्रतीक चिह्न् माना जाता है. कृ्तिका का संबंध अग्नि देव व अग्नि तत्व से है. कार्तिकेय को देवताओं का सेनापति माना जाता है. यही कृ्तिका नक्षत्र के अधिदेवता हैं. शिव पुत्र कार्तिकेय का लालन-पलान 7कृ्तिकाओं ने किया था. अत: सभी प्रकार की सेवा, सहायता व पोषण कृ्तिका नक्षत्र का कारकत्व है.

इस नक्षत्र में 7 तारे, कार्तिकेय की धाय माँ के रुप, तपस्विनी व ऋषि पत्नियाँ हैं. वे योग सिद्ध हैं. कुछ विद्वान 7 कृ्तिकाओं का अर्थ 5 ज्ञानेन्द्रियों, छ्ठा मन तथा 7वाँ बुद्धि मानते हैं. कृ्तिका शब्द से अंग्रेजी भाषा का critical शब्द बना है. आध्यात्मिक क्षेत्र में कृ्तिका नक्षत्र पवित्रता व शुद्धि का महत्व समझाता है. कृ्तिका को कर्मठ व क्रियाशील नक्षत्र माना गया है. यह नक्षत्र उद्विग्न, बेचैन व असंतोषी स्वभाव का है. बहुत ज्यादा महत्वाकाँक्षी होने से, निरन्तर कर्म करने में विश्वास करते हैं.

कृ्तिका नक्षत्र को ब्राह्मण जाति का माना जाता है. इसको ब्राह्मण मानने का कारण इसका संबंध ज्ञान, विद्या, अध्ययन व मनन से है. कृ्तिका नक्षत्र का स्वामी ग्रह सूर्य एक सात्विक ग्रह होने से, जातक दार्शनिक स्वभाव, अध्यात्मवादीव पवित्रता का पक्षधर होता है. ये सब गुण ब्राह्मण में ही होते हैं. इस नक्षत्र को स्त्री नक्षत्र माना जाता है. नितम्ब, कूल्हा, जाँघे तो दूसरी ओर सिर का सर्वोच्च भाग कृ्तिका नक्षत्र का अंग माना जाता है.

यह कफ़ प्रकृ्ति का नक्षत्र है. शुक्र की वृ्ष राशि में स्थिति के करण यह कफ़ प्रकृ्ति का नक्षत्र बना. चन्द्रमा इस नक्षत्र में उच्च का स्थान पाता है तो भी कृ्तिका का कफ़ नक्षत्र होना तर्कसंगत है. कृ्तिका के अधिपति देवता देवसेनापति कार्तिकेय हैं. इस नक्षत्र की दिशा भचक्र में पूर्व से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए दक्षिण - पूर्व दिशा या अग्नि कोण में हैं.

कृ्तिका नक्षत्र के स्थान वो सभी जगह हैं जहाँ गर्मी अधिक पड़ती हैं. मरूस्थल या बंजर भूमि, वनस्पति टीन, कृ्षि भूमि, चरागाह या पशुशाला, ज्वालामुखी पर्वत के पास का स्थान, सेना का बेस कैम्प, गोलीबारी का मैदान, सरकारी भवन, विश्वविद्यालय तथा पुनर्वास केन्द्र आदि स्थान कृ्तिका नक्षत्र में आते हैं.

कृ्तिका नक्षत्र को रजोगुणी नक्षत्र माना गया है. कृ्तिका नक्षत्र का राक्षस गण है. यह अधोदृ्ष्टि नक्षत्र है. इसकी तीक्ष्ण दृ्ष्टि सतह के नीचे छिपी बातों को देखने के लिये उत्सुक रहती हैं. इसे मिश्र नक्षत्र भी कहते हैं. यदि यह तीक्ष्ण व उग्र है तो सौम्य व शान्त भी है. इसका कारण इस नक्षत्र का संबंध अग्नि प्रधान मंगल की राशि मेष और सौम्य व शुभ ग्रह शुक्र की राशि वृ्ष से होता है.

अक्तूबर मास में पड़ने वाले कार्तिक मास के पूर्वार्ध को कृ्तिका नक्षत्र का मास तथा कृ्ष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष की षष्टी तिथी को कृ्तिका नक्षत्र की तिथी माना जाता है. सूर्य को कृ्तिका नक्षत्र का स्वामी ग्रह माना जाता है. कृ्तिका नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर अ या आ है. द्वितीय चरण का अक्षर इ है. तृ्तीय चरण अक्षर उ है. चतुर्थ चरण ए है. कृ्तिका नक्षत्र की मेष योनि है. कृ्तिका नक्षत्र का गोत्र महर्षि अंगिरा से जोडा़ गया है.

#कृ्ष्ण पक्ष अंशों सहित - Krishna Paksh Ansho Sahit
तिथि - सूर्य से चन्द्र की दूरी

प्रतिपदा - 180 से 168 डिग्री तक

द्वितीया - 168 से 156 डिग्री तक

तृ्तीया - 156 से 144 डिग्री तक

चतुर्थी - 144 से 132 डिग्री तक

पंचमी - 132 से 120 डिग्री तक

षष्ठी - 120 से 108 डिग्री तक

सप्तमी - 108 से 96 डिग्री तक

अष्टमी - 96 से 84 डिग्री तक

नवमी - 84 से 72 डिग्री तक

दशमी - 72 से 60 डिग्री तक

एकादशी - 60 से 48 डिग्री तक

द्वादशी - 48 से 36 डिग्री तक

त्रयोदशी - 36 से 24 डिग्री तक

चतुर्दशी - 24 से 12 डिग्री तक

अमावस्या - 12 से 0 डिग्री तक


वैसे तो एक चान्द्र मास में 30 तिथियाँ होती हैं, पर कभी-कभी ये कम या ज्यादा भी हो जाती हैं.

#कृ्ष्णादि मास Krishnadi Maas
एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक का मास कृ्ष्णादि या पूर्णिमान्त कहलाता है

#केतु ग्रह - Ketu Grah[Ketu]
केतु ग्रह के अन्य नाम शिखी ध्वज, शनिसुत, गुलिक, मांदि, यमात्मज, प्राणहर, अतिपापी आदि हैं. केतु का रंग कृ्ष्ण या धूसर है अर्थात धुएं जैसा है. केतु के अधिपति ब्रह्म हैं. यह नैसर्गिक पाप ग्रह है. इस ग्रह का क्गनिज पदार्थ नीलम है. इसका स्थान भी साँप की बाम्बी है. केतु ग्रह का वस्त्र बडे़ - बडे़ छेदों वाला वस्त्र है. वस्त्र का रंग विचित्र है. केतु तमोगुणी ग्रह है. प्रकृ्ति सम है.

केतु ग्रह की आयु 100 वर्ष है. इसका रत्न वैडूर्य है और लहसुनिया है. यह ग्रह पर्वतों पर विचरता है. वनचर है. इसका देश परवत है. यह स्थिर ग्रह है. इसका वृ्क्ष गुल्म है. इसकी इन्द्रिय स्पर्श है. इसकी वात प्रकृ्ति है.

ज्योतिष में सबसे रहस्यमयी ग्रह केतु है. यह आध्यात्मिक और दैवीय ग्रह भी है. केतु दादा-दादी और नाना-नानी का प्रतीक ग्रह है. केतु विदेशी भाषा का कारक ग्रह भी है.

#केन्द्रादि दशा - Kendradi Dasha
केन्द्र दशा या केन्द्रादि दशा

यह जैमिनी पद्धति की दशा है. इसमें प्रत्येक राशि की 9 वर्ष की दशा है. कुल दशा 108 वर्ष की है. लग्न और सप्तम में जो भाव बली है उस भाव से यह दशा शुरु होती है. यदि विषम राशि है तो सीधे क्रम से दशा शुरु होगी और यदि सम राशि है तो उल्टे क्रम से दशा शुरु होगी.

अधिकतर ज्योतिषी चारो केन्द्रों में जो बली केन्द्र है उससे दशा क्रम शुरु करते है. कुछ विद्वान प्रथम दशा जो केन्द्र बली हो उससे शुरु करते हैं फिर लग्न एवं सप्तम में जो बली हो. केन्द्र के बाद पणफर फिर आपोक्लिम की राशि बल के अनुसार दशा क्रम चलेगी. दशा वर्ष चर दशा जैसे हैं.

#केन्द्रादि बल - Kendradi Bal
केन्द्रादि बल - यह बल जैमिनी ज्योतिष में गणना के लिए निकाला जाता है.

आत्मकारक से केन्द्र में बैठे ग्रह को 60 षष्टियांश बल मिलेगा.

आत्मकारक से पणफर में बैठे ग्रह को 40 षष्टियांश बल मिलेगा.

आत्मकारक से अपोक्लिम में बैठे ग्रह को 20 षष्टियांश बल मिलेगा.

#केन्द्रादि भाव - Kendradi Bhav
जन्म कुंडली के बारह भाव

केन्द्र - प्रथम,चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भाव को केन्द्र कहते हैं

त्रिकोण - प्रथम, पंचम तथा नवम स्थान को त्रिकोण कहते हैं

पणफर - द्वित्तीय, पंचम,अष्टम एवं एकादश स्थान

अपोक्लिम - तृ्तीय,षष्ठ,नवम तथा द्वादश भाव

त्रिक भाव - षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश भाव

उपचय - तृ्तीय, षष्ठ, दशम तथा एकादश भाव.

त्रिषडाय - तृ्तीय, षष्ठ तथा एकादश भाव

#केन्द्राधिपति दोष - Kendradhipati Dosh
बृ्हस्पति और बुध ग्रहों को केन्द्राधिपति दोष लगता है. जब लग्न में मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशि उदय होती हैं तब केन्द्राधिपति दोष इन ग्रहों को लगता है क्योंकि 3,6,9,12 लग्नों में से जो भी लग्न उदय होगा तो बुध और गुरु की दूसरी राशि भी केन्द्र में ही पडे़गी जिससे केन्द्राधिपति दोष ग्रह को लगता है.

#कोट चक्र - Kota Chakra
कोट चक्र में, अभिजीत सहित 28 नक्षत्रों का प्रयोग किया जाता है. कोट चक्र बनाने के लिए तीन आयताकार वर्ग बनाने हैं. सबसे पहले एक छोटा वर्ग बनाना है. उसके बाहर एक दूसरा वर्ग बनाना है. फिर एक तीसरा वर्ग दूसरे वर्ग के बाहर बनाना है. चित्र के अनुसार वर्ग बनाकर कोट चक्र का निर्माण करना है. जब कोट चक्र बन जाए तब उत्तर-पूर्व कोने में जन्म नक्षत्र को लिखा जाता है. उदाहरण के लिए किसी का जन्म नक्षत्र मृगशिरा है तो उत्तर-पूर्व कोने में हम मृगशिरा नक्षत्र को लिख देगें उसके बाद बाकी सभी नक्षत्रों को क्रमानुसार लिखा जाता है.

कोट चक्र के सबसे भीतर के आयताकार वर्ग को स्तम्भ कहते हैं. उसके बाद के दूसरे वर्ग को मध्य कहते हैं. तीसरे आयताकार वर्ग को प्रकार कहते है और जो नक्षत्र सबसे बाहरी हिस्से में लिखे जाते हैं या जहाँ से नक्षत्रों का प्रवेश होता है तथा बाहर निकलते हैं उस भाग को बाह्य कहा जाता है.

कोट चक्र में नक्षत्रों का प्रवेश उत्तर-पूर्व दिशा से शुरु होकर पूर्व दिशा में नक्षत्र बाहर निकलते हैं. फिर दक्षिण-पूर्व दिशा से प्रवेश करके दक्षिण दिशा से बाहर निकलते हैं. दक्षिण-पश्चिम दिशा से कोट चक्र के भीतर नक्षत्र प्रवेश करते हैं और पश्चिम दिशा से बाहर निकलते हैं. उत्तर-पश्चिम दिशा से प्रवेश करते हैं और उत्तर-दिशा से बाहर निकलते हैं. ये सभी नक्षत्र क्रमानुसार चलते हैं. उत्तर-पूर्व दिशा में जन्म नक्षत्र को लिखकर आरम्भ होता है तो उत्तर दिशा के अंत में अंतिम नक्षत्र लिखा जाता है.

जिस दिन का कोट चक्र बनाना है तब सबसे पहले कोट चक्र में नक्षत्रों की स्थापना की जाती है. उसके बाद उस दिन के ग्रहों को स्थापित किया जाता है. उस दिन जो ग्रह जिस नक्षत्र में स्थित है उसे उस नक्षत्र विशेष के सामने लिख दिया जाता है. इस प्रकार सभी नौ ग्रहों को कोट चक्र में स्थापित कर दिया जाता है.

#कोट पाल - Kota Paal
कोट चक्र में कोट पाल का निर्णय नक्षत्र चरण के आधार पर किया जाता है. सबसे पहले अवकहडा़ चक्र के आधार पर नक्षत्र चरण का निर्धारण किया जाता है. फिर उस नक्षत्र चरण में पड़ने वाले अक्षरों के स्वामी ग्रह को देखा जाता है. जो अक्षर जिस ग्रह के अन्तर्गत आते हैं वह ग्रह कोट पाल कहलाता है.

माना किसी व्यक्ति का जन्म मृगशिरा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है. मृगशिरा नक्षत्र के तृतीय चरण के अक्षरों के स्वामी ग्रह मंगल है. इस प्रकार मृगशिरा नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति के कोट चक्र का कोट पाल मंगल ग्रह हुआ. कोट चक्र में कोट पाल का प्रकार या बाह्य भाग में स्थित होना शुभ माना गया है. कोट पाल का कार्य द्वार पर खडे़ रहकर किले या दुर्ग की रक्षा करना है. इसी कारण इसका बाह्य भाग में स्थित होना शुभ है.

#कोट स्वामी - Kota Swami[Lord of The Fort]
कोट चक्र में कोट स्वामी का निर्णय व्यक्ति की चन्द्र राशि से होता है. जातक की कुण्डली में चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि का स्वामी कोट स्वामी कहलाता है. माना चन्द्रमा किसी व्यक्ति की कुण्डली में मिथुन राशि में स्थित है और मिथुन राशि का स्वामी ग्रह बुध है. इस प्रकार बुध कोट स्वामी कहलाएगा.

प्राचीन समय में कोट का अर्थ किला या दुर्ग होता था. इसलिए कोट स्वामी को दुर्ग स्वामी भी कहा गया है. कोट चक्र में कोट स्वामी की स्थिति स्तम्भ या मध्य में होना शुभ माना गया है. प्रकार में कमजोर तथा बाह्य भाग में कोट स्वामी का स्थित होना अशुभ माना गया है.

#क्रांति प्रदेश - Kranti Pradesh
क्रांतिवृ्त्त के दोनों ओर 9-9 डिग्री का एक कल्पित चौडा़ पट्टा है जिसके भीतर सब ग्रह घूमते है. इस प्रकार 18 डिग्री के चौडे़ पट्टे को क्रांति प्रदेश कहते हैं. इसके भीतर 12 राशियाँ और 27 नक्षत्र हैं.

#क्रांतिवृ्त्त - Krantivrit
आकाश में सूर्य जिस मार्ग से भ्रमण करते हुए दिखता है उसे क्रान्तिवृ्त्त कहते है. इसे आपामंडल भी कहते है. सब ग्रह इसी मार्ग से या इसके समीप होकर सूर्य की परिक्रमा करते है. इसे रविमार्ग भी कहते हैं क्योंकि सूर्य एक वर्ष में 12 राशियों में प्राय: इसी मार्ग से एक बार परिक्रमा कर लेता है. क्रान्तिवृ्त्त वास्तव में पृ्थ्वी का परिक्रमा करने का मार्ग है और पृ्थ्वी सूर्य की परिक्रमा एक वर्ष में प्राय: 12 राशियों में कर लेती हैं. यह क्रान्तिवृ्त्त अंडाकार है

#क्रान्ति - Kranti
आकाशीय नाडी़वृ्त्त से क्रान्तिवृ्त्त की ओर ग्रहों का अन्तर नाडी़वृ्त्त से नापा जाता है जिससे प्रकट हो कि कोई तारा नाडी़वृत से उत्तर या दक्षिण कोण पर कितने अन्तर पर है. जितने अंश की दूरी पर वह ग्रह या तारा उपरोक्त नाप से निकलेगा वही नाप उस ग्रह या तारे की उत्तर या दक्षिण क्रान्ति होगी.

#क्रान्ति साम्य दोष - Kranti Samya Dosh
इस दोष को महापात दोष भी कहते हैं सूर्य - चन्द्रमा की क्रान्ति समान होने पर यह दोष होता है. शुभ कार्यों में इस दोष की बडी़ निन्दा की गई है. इसमें विवाह करना सर्वत्र ही वर्जित है. सिंह व मेष राशि, वृ्ष व मकर राशि, तुला व कुंभ राशि, मिथुन व धनु राशि, कर्क व वृ्श्चिक राशि, कन्या व मीन राशि युगलों में सूर्य व चन्द्रमा रहें तभी इस दोष की संभावना रहती है.

#क्षय मास Kshay Maas
जिस चन्द्र मास के 2 पक्ष में 2 संक्रान्ति होती है उसे क्षयमास कहते हैं. क्षय मास केवल कार्तिक आदि 3 महिनों में पड़ता है और महिनों में नहीं पड़ता. जिस वर्ष क्षय मास होता है उस एक वर्ष के भीतर 2 अधिक मास होते हैं. यह कई वर्षों में पड़ता है. यदि भाद्रपद अधिकमास होगा तो सूर्य की गति अधिक होने से मार्गशीर्ष में 2 संक्रान्ति वाला क्षय मास होगा और सूर्य की गति अल्प हो जाने के कारण चैत्र मास भी अधिक होगा.

जिस सम्वत में क्षय मास होता है उसके 149 या 19 वर्ष उपरान्त पुन: क्षय मास होना सम्भव होता है अर्थात कभी 149 वर्ष में कभी 19 वर्ष में संभव होता है.

#क्षिप्र या लघु नक्षत्र - Kshipra or Laghu Nakshatra
अश्विनी नक्षत्र, पुष्य, हस्त, अभिजित नक्षत्र ये चार नक्षत्र क्षिप्र या लघु नाम वाले होते है. इनमे खरीदने और बेचने के कार्य, मंगलकार्य, यात्रा करना, विद्या आरंभ करना तथा चर नक्षत्र मे होने वाले कार्य भी इस नक्षत्र में कर सकते है.

#खंजाब योग - Khanjab Yog
वर्ष कुण्डली में लग्न का स्वामी, दूसरे भाव का स्वामी या पांचवें भाव तथा चौथे भाव का स्वामी या दशम भाव का स्वामी और सप्तम भाव का स्वामी एक साथ जिस भाव में बैठे हों, वह भाव विशेष तौर पर उन्नति और सफलता देने वाला होता है. इन भावों से जातक को उस वर्ष में सफलता मिलती है.

#खवेदांश - Khavedansh
यह वर्ग जातक की कुण्डली के शुभ या अशुभ फलों का विवेचन करता है. 30 डिग्री को 40 बराबर भागों में बांटा जाता है. प्रत्येक भाग 0 डिग्री 45 मिनट का होता है. इस वर्ग में विषम राशियों में गणना मेष से शुरु होती है. सम राशियों में ग्रह हैं तो गणना तुला राशि से शुरु होगी.

#खुशाला योग - Khushala Yog
जिस वर्ष कुण्डली के छठे भाव में क्रूर ग्रह हों तथा दशम भाव में शुभ ग्रह हों अर्थात चन्द्रमा, बुध, गुरु और शुक्र स्थित हो तब उस वर्ष कुण्डली में खुशाला योग बनता है.

यह योग जातक के लिए एक अनुकूल योग है. जिस वर्ष यह योग बनता है उस वर्ष जातक को पदोन्नति मिलती है. जमीन की प्राप्ति होती है. विवाद में विजय हासिल होती है. धन लाभ होता है. विवाह होता है. पुत्र सुख की प्राप्ति होती है. आर्थिक अनुकूलता प्राप्त होती है.

#खुशाली योग - Khushali Yog
यदि वर्ष कुण्डली के तीसरे भाव में शुक्र और गुरु हों तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ शनि बैठा हो तो ऎसे योग को खुशाली योग कहते हैं.

जिस वर्ष यह योग निर्मित होता है, वह वर्ष जातक का प्रभुत्व बढा़ने वाला, सम्मान देने वाला, विदेश यात्रा होती है. जातक को व्यापार में विशेष लाभ देता है.

#नक्षत्रों के देवता - Lord of The Naskhatras
अभिजीत सहित सभी 28 नक्षत्रों के देवता निम्नलिखित हैं :-

अश्विनी - अश्विन अथवा अश्विनी कुमार

भरणी - यम

कृ्त्तिका - अग्नि

रोहिणी - प्रजापति अथवा ब्रह्मा

मृगशिरा - सोम अथवा चन्द्र

आर्द्रा - रुद्र अथवा शिव

पुनर्वसु - अदिति

पुष्य - गुरु अथवा बृ्हस्पति

अश्लेषा - सर्प

मघा - पितर

पूर्वाफाल्गुनी - अर्यमा या भग

उत्तराफाल्गुनी - भग अथवा अर्यमा

हस्त - सविता

चित्रा - इन्द्र अथवा त्वष्टा

स्वाति - वायु

विशाखा - इन्द्राग्नी

अनुराधा - मित्र

ज्येष्ठा - इन्द्र

मूल - नैऋति या प्रजापति या राक्षस

पूर्वाषाढा़ - जल

उत्तराषाढा़ - विश्वेदेव

श्रवण - गरुड़ अथवा विष्णु

धनिष्ठा - वसु

शतभिषा - इन्द्र अथवा वरुण

पूर्वाभाद्रपद - अजैकपाद

उत्तराभाद्रपद - अहिर्बुध्न्य

रेवती - पूषा

अभिजित - ब्रह्म


#भावों के कारक ग्रह - [Karak Planets of The Houses]
बारह भावों के कारक ग्रह

भाव - ग्रह

प्रथम भाव - सूर्य

द्वितीय भाव - गुरु

तृ्तीय भाव - मंगल

चतुर्थ भाव - चन्द्र,मंगल,शुक्र

पंचम भाव - गुरु

छठा भाव - शनि,मंगल

सप्तम भाव - शुक्र

अष्टम भाव - शनि

नवम भाव - सूर्य और गुरु

दशम भाव - सूर्य,बुध,गुरु,शनि

एकादश भाव - गुरु

द्वादश भाव - शनि

#लग्न - Lagna [Ascendant]
पृ्थ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है इसलिए पृ्थ्वी से हमें सारा राशि चक्र और ग्रह, नक्षत्र पूर्व में उदित होते तथा पश्चिम में अस्त होते दिखाई देते हैं. सभी बारह राशियाँ पूर्वी क्षितिज पर एक-एक करके उदित होती हैं और 24 घंटे में एक चक्र पूरा हो जाता है.

जन्म के समय, प्रश्न के समय या किसी घट्ना के समय जो राशि पूर्वी क्षितिज पर उदय होती है उसे जन्म, प्रश्न या घटना का लग्न कहा जाता है. यह लग्न राशि हर कुंडली का प्रारंभिक बिन्दु होती है तथा इसे कुंडली का प्रथम भाव भी कहा जाता है. अन्य राशियाँ क्रम से अन्य भावों में रखी जाती हैं. राशियों के उदय होने का काल या राशिमान अक्षांश के आधार पर भिन्न-भिन्न होता है.

#लग्न-शुद्धि विचार - Lagna-Shuddhi Vichar
जन्मराशि या जन्मलग्न से 3,6,10,11 भावों की राशि का लग्न हो, आठवें व बारहवें भाव में कोई ग्रह ना हो, लग्न पर शुभ ग्रह की दृष्टि या योग हो. चन्द्रमा 3,6,10,11 भावों में हो तो समस्त शुभ कार्यों के लिए शुद्ध लग्न बन जाता है.


#लत्ता दोष - Latta Dosh
लत्ता दोष :- इस दोष को लात दोष भी कहते हैं. बृ्हस्पति जिस नक्षत्र पर हो उससे आगे के छठे नक्षत्र पर सूर्य, मंगल तीसरे नक्षत्र पर, शनि आठवें नक्षत्र पर लात मारता है.

इसी प्रकार पूर्ण चन्द्र अपने नक्षत्र से पिछले 22 वें नक्षत्र पर, राहु 9 वें नक्षत्र पर, बुध सातवें पर, शुक्र पाँचवें नक्षत्र पर लात मारता है. मतान्तर से केवल पाप ग्रहों की लत्ता को त्याग देने की बात कही गई है.

#लत्ता योग - Latta Yog
यदि वर्ष कुण्डली में दूसरे, छठे और सातवें भाव में क्रूर ग्रह हों और लग्न का स्वामी दूसरे या द्वादश भाव में हो तथा ये ग्रह शुभ ग्रहों से दृष्ट ना हो या शुभ ग्रहों के साथ ना हों तो लत्ता योग बनता है.

जिस वर्ष में यह योग बनता है, वह वर्ष जातक के लिए अत्यन्त ही दु:खदायी और दुर्घटनाओं से भरा हो सकता है. इस वर्ष में शत्रुओं से विवाद, मुकदमों में पराजय, मानसिक चिन्ताएं बनी रहती है.

#लाभ सहम - Labh Saham
दिन व रात्रि वर्ष प्रवेश हेतु :- एकादश भाव मध्य रेखांश - एकादश भाव स्वामी + लग्न

#लालील योग - Lalil Yog
वर्ष कुण्डली में इस योग को महत्वपूर्ण माना गया है. जिस वर्ष, वर्ष कुण्डली में पुरुष ग्रह चतुर्थ भाव में, दूसरे भाव में और लग्न में हो और क्रूर और पाप ग्रह छठे, आठवें, ग्यारहवें भाव में हों तब उस वर्ष लालील योग बनता है.

जिस वर्ष यह योग बनता है, उस वर्ष में आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.

#स्थानीय औसत समय - Local Mean Time
औसत सौर दिन की अवधि 24 घण्टे की होती है. जब सूर्य किसी स्थान के यामोत्तर वृ्त् को पार कर लेता है तब स्थानीय मध्याह्न होता है. सूर्य का घण्टा कोण शून्य हो जाता है. जब घण्टा 12 हो तब उस स्थान पर मध्य रात्रि तथा स्थानीय औसत समय शून्य होता है और नया दिन शुरु होता है. स्थानीय औसत समय का अर्थ है उस स्थान पर मध्य रात्रि के बाद बीता हुआ समय है.

प्रत्येक रेखांश पर 4 मिनट का समय अन्तराल एक सा नहीं है. इसके कई कारण हैं जैसे अक्षांश और पृ्थ्वी का अपने अ़क्ष पर झुका होना आदि. इस कारण हर स्थान का समय भिन्न-भिन्न होता है जो स्थान विशेष का स्थानीय औसत समय कहलाता है.

#एस्ट्रोबिक्स ज्योतिष विकी

एस्ट्रोबिक्स ज्योतिष विकी


एस्ट्रोबिक्स ज्योतिष विकी में आपका स्वागत है. यहां आपको ज्योतिष के बारे में जानकारी मिलेगी. ज्योतिष से संबंधित किसी शब्द या विषय के बारे में अगर आपको जिज्ञासा है तो आप उसके बारे में जानकारी यहां पा सकते हैं.

विकि की कुछ श्रेणियां


  1. ज्योतिष के आधारभूत सिद्धांत - यहां पर ज्योतिष के आधारभूत सिद्धांतो के बारे में जानकारी मिलेगी.
  2. पंचांग - पंचांग वैदिक ज्योतिष के सबसे महत्वपूर्ण विषयों में से है. यहां पर पंचांग के अंगो के बारे में जानिये.
  3. दशायें - ज्योतिष में दशाओं के द्वारा जीवन में किसी भी समय उस पर पड़ने वाले ग्रहों के प्रभाव को जांचा जाता है.
  4. जैमिनी ज्योतिष - ऋषि जैमिनी ने इस ज्योतिष पद्धति को प्रचलित किया. यहां इसके बारे में जानकारी पायें.
  5. उपग्रह - उपग्रहों का कैल्कुलेशन.
  6. ग्रहों का बल - ग्रहों के बल के निर्धारण के बारे में जानकारी.
  7. विवाह ज्योतिष - विवाह से संबंधित योग व जानकारी.
  8. कुण्डली के वर्ग - कुण्डली के वर्गों के बारे में जानकारी.


#ग्रहों की मूल त्रिकोण राशियाँ - [Mool Trikon Sign of the Planets]
ग्रह - मूल त्रिकोण राशि

सूर्य - सिंह

चन्द्र - वृ्ष

मंगल - मेष

बुध - कन्या

गुरु - धनु

शुक्र - तुला

शनि - कुंभ

#चन्द्रमा वर्षेश के रुप में - Moon As Year Lord
सामान्यत: चन्द्रमा को वर्षेश नहीं बनाया जाता है, लेकिन कुछ विशेष नियमों को पूरा करने पर चन्द्रमा भी वर्षेश बन सकता है.

  1. यदि वर्ष कुण्डली के लग्न में कर्क राशि हो और चन्द्रमा लग्न में ही हो तब वह वर्षेश बन सकता है.
  2. यदि वर्ष प्रवेश रात्रि का हो, चन्द्र त्रि-राशि पति हो, सर्वाधिक बलिष्ठ ग्रह हो तथा लग्न पर दृ्ष्टि डाल रहा हो, तब इस परिस्थिति में चन्द्रमा को वर्षेश बना सकते हैं.

#नक्षत्र - Nakshatra
राशिचक्र के 27 सम विभाग करने से 27 नक्षत्र होते हैं. प्रत्येक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनट का होता है. एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते है. अर्थात एक राशि में नौ नक्षत्र चरण होते है. नक्षत्र का प्रत्येक चरण 3 डिग्री 20 मिनट का होता हैं. 27 नक्षत्रों में अभिजित की गणना नहीं होती. क्योंकि यह नक्षत्र क्रान्ति प्रदेश से बाहर है. इस नक्षत्र का उपयोग मुहुर्त के विषय में होता है.

यह नक्षत्र आकाश में उत्तराषाढा़ और श्रवण के बीच कुछ हट कर है. उत्तराषाढा़ नक्षत्र का चतुर्थ चरण अर्थात अन्तिम चतुर्थ भाग और श्रवण नक्षत्र के आदि का एक भाग जो 4 घडी़ का है अर्थात श्रवण नक्षत्र के आदि का पन्द्रहवाँ भाग इतना सब मिलकर अभिजित नक्षत्र का भोग माना जाता है.

प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते है. प्रत्येक चरण के लिए एक अक्षर होता है. जिस चरण में किसी बालक का जन्म होता है उसी चरण के अक्षर पर बालक का नाम रखा जाता है. चरण के अनुसार अक्षर बताने वाले चक्र को होडा़चक्र कहते है.

#नक्षत्र और मास - Nakshatras And Months
चैत्र, वैशाख आदि महीनों के नाम चन्द्रमा के नक्षत्रों के आधार पर रखे गए हैं. वैदिक काल में चैत्रादि मासों के नाम प्राप्त नहीं होते हैं परन्तु मास पूर्णिमा व नक्षत्र का संबंध एकदम स्पष्ट दिखाई देता है. मास नामों की तालिका निम्नलिखित है :-

मास - नक्षत्र

चैत्र - चित्रा. स्वाति

वैशाख - विशाखा, अनुराधा

ज्येष्ठ - ज्येष्ठा, मूल

आषाढ़ - पूर्वाषाढा़, उत्तराषाढा़

श्रावण - श्रवण, धनिष्ठा

भाद्रपद - शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद

आश्विन - रेवती, अश्विनी, भरणी

कार्तिक - कृत्तिका, रोहिणी

मार्गशीर्ष - मृगशिरा, आर्द्रा

पौष - पुनर्वसु, पुष्य

माघ - अश्लेषा, मघा

फाल्गुन - पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त

#नक्षत्र वर्ष Nakshatra varsh [Nakshatra Year]
एक नक्षत्र वर्ष में 27 नक्षत्र होते हैं. इन नक्षत्रों की अवधि 27x12=324 औसत सौर दिन होती है जो ‘ नक्षत्र वर्ष ‘ कहलाती है.

#नक्षत्रों का दिशाशूल - Nakshatro ka Dishashul
हमारे प्राचीन ग्रंथों में कुछ नक्षत्र ऎसे हैं जिनमें दी गई दिशाओं में यात्रा करना शुभ नहीं माना जाता है. वर्तमान समय में अभी भी भारत के कुछ भागों में दिशाशूल का विचार किया जाता है. ये नक्षत्र और दिशाएं निम्नलिखित हैं :-

ज्येष्ठा नक्षत्र में पूर्व दिशा में

पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में दक्षिण दिशा में

रोहिणी नक्षत्र में पश्चिम दिशा में

उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उत्तर दिशा में दिशाशूल या शूल होता है.

#नाक्षत्र मास Naakshatra Maas [Nakshatra Month]
अश्विनी आदि 27 नक्षत्रों में चन्द्रमा एक बार जब अपना चक्र पूरा कर लेता है तब नाक्षत्र मास होता है.

#नाक्षात्रिक दिवस या साम्पातिक दिवस [Nakshatra Day]
किसी निश्चित तारे के सन्दर्भ में पृ्थ्वी की अपने अक्ष पर एक पूर्ण परिक्रमा की अवधि ‘नाक्षत्रिक दिवस’ कहलाता है. एक औसत सौर दिवस में उसकी अवधि 23 घण्टे, 56 मिनट, 4.091 सैकण्ड होती है. इसे औसत नाक्षत्रिक दिवस भी कहते है.

#नाक्षात्रिक मास Naakshatrik Maas [Nakshatra Month]
किसी निश्चित तारे के सन्दर्भ में चन्द्र का पृ्थ्वी की एक पूर्ण परिक्रमा में लगने वाला समय ‘नाक्षत्रिक मास’ कहलाता है. इसकी अवधि 27 दिन, 7 घण्टे, 43 मिनट और 11.6 सैकण्ड होती है.

#नाक्षात्रिक वर्ष Naakshatrik Varsh [Naakshatrik Year]
किसी निश्चित तारे के संदर्भ में पृ्थ्वी को अपनी कक्षा पर एक पूर्ण परिक्रमा में लगने वाला समय ‘नाक्षत्रिक वर्ष’ कहलाता है. एक नाक्षत्रिक वर्ष की अवधि 365 दिन, 6 घण्टे, 9 मिनट और 9.8 सैकण्ड होती है.

#नाडी़ मिलान - Nadi Milan [Nadi Matching]
नाडि़याँ तीन प्रकार होती हैं :-

  1. आदि नाडी़
  2. मध्य नाडी़
  3. अन्त्या नाडी़
व्यक्ति की नाडी़ का निश्चय उसके जन्म नक्षत्र के आधार पर किया जाता है. नक्षत्रों की संख्या 27 हैं तथा नाडि़यों की संख्या 3 है. अत: प्रत्येक नाडी़ में 9 नक्षत्र आते हैं.

शरीर के वात,पित्त और कफ़ इन तीनों दोषों की जानकारी नाडी़ स्पन्दन द्वारा होती है ठीक उसी प्रकार दो अपरिचित लोगों के मन की जानकारी आदि, मध्य एवं अन्त्या नाडि़यों से की जाती है.

वर-वधू की एक नाडी़ होना मेलापक में वर्जित माना गया है. गुण मिलान में नाडी़ मिलान के सर्वाधिक 8 अंक होते हैं. भिन्न नाडी़ होने पर 8 अंक तथा एक ही नाडी़ होने पर 0 अंक मिलते हैं.


नाडी़ दोष का परिहार

कुछ स्थितियों में नाडी़ दोष का परिहार हो जाने पर यह दोष प्रभावहीन हो जाता है. यदि एक ही नक्षत्र में उत्पन्न वर एवं कन्या के नक्षत्रों के चरण भिन्न-भिन्न हो तो नाडी़ दोष का परिहार हो जाता है.

यदि वर एवं कन्या का जन्म भिन्न-भिन्न नक्षत्रों में होते हुए नाडी़ दोष हो तो उन दोनों की राशि एक होने पर इस दोष का परिहार हो जाता है.

#नामकरण मुहूर्त - Naamkaran Muhurta
सूतक समाप्त होने के 10,11,12,13,16,19,22वें दिन नामकरण संस्कार करना चाहिए. मतान्तर से ब्राह्मण को 10वें या 12वें दिन, वैश्य को 16वें व 20वें दिन, क्षत्रिय को 11वें या 12वें दिन नामकरण संस्कार करना चाहिए. नामकरण संस्कार पिता या परिवार के वरिष्ठ व्यक्ति के द्वारा मंत्रोंच्चारण के साथ करवाना चाहिए.

शुभ तिथियाँ - कृष्ण पक्ष की प्रथमा तिथि, शुक्ल पक्ष की 2,3,7,10,11,12,13 तिथियों को लेना चाहिए.

शुभ वार - सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को मुहूर्त के लिए लेना चाहिए.

शुभ नक्षत्र - अश्विनी, रोहिणी, मृ्गशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा़, उत्तराभाद्रपद, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती नक्षत्रों को नामकरण मुहूर्त में प्रयोग करना चाहिए.

शुभ लग्न - मेष, कर्क, कन्या, तुला, धनु, मीन लग्न शुभ से दृष्ट हों या शुभ ग्रह लग्न में स्थित हों.

भद्रा, ग्रहण, श्राद्ध का दिन, दुष्ट योग, संक्रान्ति आदि कोई भी योग नहीं होना चाहिए.

#नैसर्गिक मैत्री - Naisargik Maitri [Natural Friendship]
नैसर्गिक मैत्री

ग्रह - मित्र - शत्रु - सम

सूर्य - चन्द्र,मंगल,गुरु - शनि,शुक्र - बुध

चन्द्र - सूर्य,बुध - मंगल,गुरु,शुक्र,शनि

मंगल - सूर्य,चन्द्र,गुरु - बुध - शुक्र,शनि

बुध - सूर्य,शुक्र - चन्द्र - मंगल,गुरु, शनि

गुरु - सूर्य,चन्द्र,मंगल- बुध,शुक्र - शनि

शुक्र - बुध,शनि - सूर्य,चन्द्र - मंगल,गुरु

शनि - शुक्र,बुध - सूर्य,चन्द्र,मंगल - गुरु.

इस मैत्री में कोई परिवर्तन नहीं होता. इसलिये इसे नैसर्गिक मित्रता कहते हैं.

#मंगल ग्रह - Mangal Grah[Mars]
इसके अन्य नाम आर, वक्र, आवनेय, कुज, भौम, क्रूर, लोहितांग, पापी, क्रूरदृ्क,क्षितिज, रुधिर, अंगारक है. मंगल ग्रह की जाति क्षत्रिय है. रंग रक्त के समान है. मनुष्य का रंग गौर व कमल के रंग जैसा है. इस ग्रह के देवता अग्निज, भूमि हैं. इसके अधिपति कार्तिकेय हैं. मंगल की दिशा दक्षिण दिशा है. यह नैसर्गिक पाप ग्रह है. शरीर में मंगल चर्बी का कारक है. मंगल ताँबे धातु का कारक है. इस ग्रह का स्था अग्नि है. वस्त्र टूटा-फूटा है. ग्रीष्म ऋतु इसके अन्तर्गत आती है.

मंगल ग्रह तमोगुणी है. मंगल ग्रह का स्वाद तीखा है. धातु रुप है. इसकी दृ्ष्टि ऊपर की ओर है. यह अग्नि तत्व ग्रह है. यह पुरुष संज्ञक ग्रह है. इसका समय म्ध्याह्न में है. यह दिन के अंत में बली होता है. इसकी पित्त प्रकृ्ति है. आकार चौकोर तथा शरीर छोटा है. इसके नेत्र पीले हैं. अभिमानी है. मंगल की अवस्था जवान है. मंगल की स्थिति से शारीरिक बल का विचार किया जाता है. मंगल उदार ह्र्दय है. शूरवीर व हिंसक है. क्रोधी है. मंगल की आयु बाल अवस्था है. इसका स्वरुप जवान है. इसका रत्न मूँगा है.

मंगल पृ्ष्ठोदय ग्रह है. चतुष्पद है. पर्वत व वनों में विचरता है. मंगल को सेनापति की पदवी मिली है. इसके अधिकार में अवन्ती देश अर्थात लंका से कृ्ष्णा नदी तक का भाग आता है. मंगल दाहिनी ओर चिन्ह करते है और चिन्ह स्थान पीठ में है. मंगल मृ्त्यु लोक का कारक है मतान्तर से पाताल लोक का है. यह चर ग्रह है. मंगल पेट से पीठ तक के भाग का स्वामी ग्रह है. पीड़ित होने पर इन्ही भागों में पीडा़ करता है.

ज्योतिष में मंगल को प्रधान सेनापति की पदवी प्राप्त है. वर्दीधारी व्यक्ति, प्रशासनिक व्यक्ति, उच्चपदासीन व्यक्ति, शासकीय, भू-सम्पति के अभिकर्ताओं आदि का प्रतीक मंगल ग्रह है. परिवार में मंगल छोटे भाई-बहनों का कारक ग्रह है. समाज में मंगल दाम्पत्य जीवन में विशेष महत्व रखता है. हिन्दु ज्योतिष में सुखी वैवाहिक जीवन का प्रतीक मंगल है.

#मंगली दोष - Manglik Dosh
मंगली दोष जब कुन्डली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में मंगल बैठा हो तब मंगल दोष माना जाता है. इसी प्रकार चन्द्र से लग्न में, चतुर्थ में, सप्तम में, अष्टम में या द्वादश भाव में मंगल हो तब उसे चन्द्र मंगलीक मानते हैं शुक्र से भी उपरोक्त भावों में मंगल स्थित हो तो शुक्र मंगलीक माना जाता है. चन्द्र लग्न का भी लग्न के समान ही महत्व माना गया है तथा शुक्र विवाह एवं दाम्पत्य सुख का प्रतिनिधि तथा कारक ग्रह होता है. इसलिए इन दोनों ग्रहों से भी मंगलीक दोष का विचार करते हैं. तीनों से मंगलीक दोष का विचार इसलिए किया जाता है कि लग्न शरीर का, चन्द्रमा मन का तथा शुक्र रति का प्रतिनिधित्व करता है.

दक्षिण भारत के ज्योतिष ग्रन्थों में लग्न के स्थान पर द्वितीय भाव को मंगलीक दोष में शामिल किया गया है.

#मंगली दोष का परिहार - Manglik Dosh ka Parihar
मंगली दोष का परिहार

कुछ परिस्थितियों में मंगल दोष प्रभाहीन हो जाता है :-

  1. कुन्डली में लग्न आदि 5 भावों में से जिस भाव में मंगलीक योग बन रहा हो, यदि उस भाव का स्वामी बलवान हो तथा उस भाव में बैठा हो या देखता हो साथ ही सप्तमेश या शुक्र त्रिक स्थान में न हो तो मंगली योग का अशुभ प्रभाव नष्ट हो जाता है.
  2. यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान होकर केन्द्र त्रिकोण में हो तो मंगल दोष प्रभावहीन हो जाता है.
  3. वर या कन्या में से किसी एक की कुन्डली में मंगल दोष हो तथा दूसरे की कुन्डली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में शनि हो तो मंगल दोष दूर होता है.
  4. वर - कन्या में से किसी एक की कुन्डली में मंगली दोष हो और दूसरे की कुन्डली में उस भाव में कोई पाप ग्रह हो तो मंगली दोष नष्ट हो जाता है.
  5. यदि शुभ ग्रह केन्द्र त्रिकोण में तथा शेष पाप ग्रह त्रिषडाय में हो और सप्तमेश ,सप्तम स्थान में हो तब भी मंगली योग प्रभावहीन हो जाता है.
  6. मंगली योग वाली कुन्डली में बलवान गुरु या शुक्र के लग्न या सप्तम में होने पर अथवा मंगल के निर्बल होने पर मंगली दोष दूर हो जाता है.
  7. मेष लग्न मे यदि मंगल लग्न में है या वृ्श्चिक राशि में चतुर्थ भाव में मंगल स्थित है तो मंगल दोष नहीं है. वृ्षभ राशि में सप्तम स्थान में स्थित मंगल या कुंभ राशि में अष्टम स्थान में स्थित मंगल और धनु राशि में व्यय स्थान में स्थित मंगल से मंगली दोष नहीं होता.
  8. कर्क या मकर का मंगल सप्तम स्थान में होने पर, मीन का मंगल अष्टम स्थान में होने पर तथा मेष या कर्क का मंगल व्यय स्थान में होने पर मंगल दोष नहीं होता.
  9. यदि मंगली योग कारक ग्रह स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में हो तो मंगल दोष स्वत: ही समाप्त हो जाता है.

#मंदगामी ग्रह - Mandagami Grah
जब ग्रह अपनी सामान्य गति (चाल) से धीरे गति करते हैं तब ग्रह की इस अवस्था को मंदगामी कहते हैं.

#मकर राशि - Makar Rashi[Capricorn Rashi]
यह भचक्र और कालपुरुष की दसवीं राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह शनि है. इस राशि का मगर का शरीर है और मुख हिरन का है. इस राशि का रंग कबरैला है. अन्य मत से चित्तकबरा है. इस राशि के अधिकार क्षेत्र में दोनों घुटने, हड्डी, हड्डियों की सन्धि आते हैं. यह राशि उच्च पद अभिलाषी होती है. यह राशि प्रथम नवांश में अपना पूरा प्रभाव दिखाती है.

यह चर राशि है. सम है. स्त्री संज्ञक राशि है. स्वभाव से सौम्य है. इस राशि का तत्व भूमि है. यह पृ्ष्ठोदय राशि है. इस राशि में जल की मात्रा है. यह तमोगुणी राशि है. यह राशि रात्रि में बली होती है. इस राशि की वात प्रवृ्ति है. इस राशि का शरीर बडा़ है. इस राशि के आदि में चार पैर हैं और अंत अपद है. अन्य मत से पूर्वार्द्ध पशु का है और उत्तरार्ध जलचर है. यह राशि अल्प या बन्ध्या संतति है. यह धातु रुप है. इस राशि का वर्ण वैश्य है.

इस राशि का निवास स्थान भूमि है मतान्तर से जल से लगा जंगल है. इस राशि की दक्षिण दिशा है. यह राशि पंचाल देश अर्थात उत्तर प्रदेश के मध्य भाग की स्वामी है. यह राशि माघ मास में शून्य रहती है. इस राशि में उत्तराषाढा़ नक्षत्र के तीन चरण, अभिजित नक्षत्र, श्रवण नक्षत्र के चार चरण, धनिष्ठा नक्षत्र के दो चरण आते हैं. इस राशि में भो, जा, जी, जु, जे, जो, ख, खी, खू, खे, खो, गा, गी, चरणा़क्षर आते हैं. इस राशि के अन्य नाम आकेकर, चक्र, दशम, मृ्ग, म्र्गास्य, नक्र हैं.

इस राशि के पीड़ित होने पर घुटनों और हड्डियों से संबंधित रोग हो सकते हैं. इसके अतिरिक्त पेट दर्द, मंदाग्नि, मति भ्रम भी हो सकती है.

#मघा नक्षत्र - Magha Nakshatra
मघा नक्षत्र सिंह राशि के प्रथम चरण 0 अंश से चतुर्थ चरण 13 अंश 20 कला तक रहता है. यह नक्षत्र क्रान्ति वृ्त्त से 0 अंश 27 कला 53 विकला उत्तर तथा विषुवत रेखा से 11 अंश 58 कला व 55 विकला उत्तर में स्थित है. मघा का मुख्य तारा मघा आकाश के बीस सर्वाधिक चमकीले तारों में से एक है. इस ऩात्र में 6 तारे हैं जो हँसिया या दराँती जैसी आकृ्ति बनाते हैं. दराँती के नीचे मूठ पर मघा नक्षत्र का मुख्य तारा मघा स्थित है. यह द्वितीय तृ्यीयाँश का प्रथम नक्षत्र होने से मूल नक्षत्र माना जाता है. इसका नक्षत्रपति केतु ही है.

सूर्य अगस्त मास में मघा नक्षत्र पर गोचर करता है. उस समय सूर्योदय के समय प्रात: काल मघा नक्षत्र पूर्व दिशा में उदय होता है. अप्रैल में रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक मघा शिरो बिन्दु पर स्पष्ट दिखता है. माघ मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा मघा नक्षत्र में होता है. यह नक्षत्र सिंह् राशि में होने से सूर्य इसका राशिपति है.

मघा शब्द का अर्थ है - 'बलवान' 'महान' 'उत्कृ्ष्ट' 'परोपकारी' 'धन वैभव संपन्न' व सर्वाधिक महत्वपूर्ण. इन शब्दों से मघा नक्षत्र के गुणों की जानकारी प्राप्त होती है. इस नक्षत्र का चिह्न हँसिया या दराँती है जिसका उपयोग फसल काटने में होता है. अन्य विद्वान मघा नक्षत्र में 6 तारों से बनी आकृ्ति को राजमहल का सिंहासन मानते हैं. उनके मतानुसार मघा नक्षत्र पर शुभ प्रभाव, जातक को राजा के समान धन-वैभव, मान प्रतिष्ठा व उच्चाधिकार देता है. अन्य विद्वान कहते हैं कि हमारी देह. परमात्मा का अभिन्न अंश आत्मा का सिंहासन ही तो है. आत्मज्ञान व आत्मसाक्षात्कार में मघा के नक्षत्रपति केतु व राशिपति सूर्य की मुख्य भूमिका रहती है.

पितृ या पूर्वजों को मघा नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता माना गया है. मघा नक्षत्र पैतृ्क गुणों की संपदा प्राप्त कर अपनी उन्नति करता है. प्राचीन ग्रन्थों में पितरों को देवता जैसी उपाधि प्राप्त है. पितरों का स्नेहपूर्ण सहयोग पाने के लिये मघा नक्षत्र जतक निश्चय ही सत्पात्र होता है. पितृ पक्ष में पूर्वजों का श्राद्ध करना निश्चय ही धन, मान व यश की प्राप्ति में सहयोग होता है. मघा नक्षत्र इस तथ्य की पुष्टि करता है.

मघा नक्षत्र का गुण पिछले जन्मों के कर्मों से वर्तमान को सँवारने का काम करता है. मघा नक्षत्र जातक को लौकिक सुख लिप्सा देता है. नक्षत्रपति केतु आध्यात्मिक उन्नति का कारक है लौकिक सुख का नहीं है. मघा नक्षत्र जातक पितृ लोक से संबंध करने वाला नक्षत्र है. स्थूल देह के नष्ट होने पर भी मरण नहीं होता अपितु पितृ लोक में जाकर अपने वंशजों की सहायता व मार्ग दर्शन जातक करता है.

मघा एक सक्रिय नक्षत्र है. यह सूर्य की अग्नि तत्व राशि में स्थित होने से ऊर्जा, स्फूर्ति व तेज देता है. विद्वानों ने मघा नक्षत्र को शूद्र जाति का माना है. इस नक्षत्र को स्त्री नक्षत्र माना जाता है. नासिका, औष्ठ व ठोडी़ को मघा नक्षत्र का अंग माना गया है. यह कफ़ प्रकृ्ति का नक्षत्र है. इस नक्षत्र की दिशा का संबंध पूर्व, दक्षिण, उत्तर-पश्चिम व दक्षिण-पश्चिम दिशा से है. विद्वानों ने इसे तामसिक नक्षत्र माना है. मघा नक्षत्र को जलतत्त्व माना है.

मघा नक्षत्र को राक्षस गण नक्षत्र माना गया है. यह अधोमुखी नक्षत्र है. इसे उग्र व तीक्ष्ण नक्षत्र भी कहा जाता है. माघ मास का उत्तरार्ध, जो फरवरी में पड़ता है, को मघा नक्षत्र का मास कहा जाता है. भारत के अनेक प्रदेशों में माघ मास में पितृ सृ्जन की परंपरा अभी भी है. अमावस्या या कृ्ष्ण पक्ष की समाप्ति को मघा की तिथि माना जाता है. अमावस्या को पितृ विसर्जन करने की परंपरा आज भी जीवित है.

मघा नक्षत्रपति केतु को ध्वज वाहक कहा जाता है. कहीं पर केतु को पताका या ध्वजा भी कहा गया है. मघा को मूषक योनि में माना गया है. मघा नक्षत्र मंडल का दसवाँ नक्षत्र होने से जन्म कुण्डली के दशम भाव के कारकत्व कर्म योग, वैराग्य व सत्त्ता सुख को दर्शाता है. महर्षि अंगिरा या अंगिरस को मघा नक्षत्र का पूर्वज माना गया है. मघा नक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर 'मा' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'मी' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'मू' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'मे' है.

#मणऊ योग - Manau Yog
वर्ष कुण्डली में यदि लग्नेश व कार्येश में इत्थशाल हो, लेकिन कोई पाप ग्रह लग्नेश - कार्येश में से शीघ्रगति ग्रह की शत्रुदृ्ष्टि से देखते हों और शीघ्रगति ग्रह के अंशों से पाप ग्रह के अंशों का अंतर दीप्तांशों के अंदर हो और मित्र या शत्रु किसी भी दृ्श्टि से दूसरे ग्रह को भी देखते हों तो मणऊ योग बनता है. यह एक अशुभ योग है.

#मण्डूक दशा - Manduk Dasha
जैमिनी मण्डूक दशा

यदि किसी कुण्डली में लग्न से केन्द्र में चार या चार से अधिक ग्रह हों तो ( राहु/केतु को छोड़कर ) मण्डूक दशा लागू होती है, अन्यथा नहीं. यह ग्रह केन्द्र में एक ही भाव में हो सकते हैं या अलग-अलग भावों में हों भी हो सकते हैं.

#मध्य - Madhya[Central Portion]
कोट चक्र में स्तम्भ के बाद दूसरे आयताकार वर्ग को मध्य कहते हैं. जो नक्षत्र सबसे भीतरी और मध्य भाग के बीच में पड़ते हैं वह मध्य नक्षत्र कहलाते हैं. जन्म नक्षत्र से 3रा, 5वां, 10वां, 12वां, 17वां, 19वां, 24वां और 26वां नक्षत्र कोट चक्र के मध्य भाग में पड़ते हैं. मध्य भाग भी कोट चक्र के स्तम्भ भाग की तरह संवेदनशील हिस्सा है. इस भाग में यदि कोई अशुभ ग्रह गोचर कर रहा है और दशा भी प्रतिकूल है तब व्यक्ति को हानि हो सकती है.

#मध्य नाडी़ - Madhya Nadi
मध्या नाडी़, नाडी़ चक्र की दूसरी नाडी़ है. यह नाडी़ पित्त प्रवृ्त्ति की नाडी़ है. यदि जातक की मध्य नाडी़ है तो उसे पित्त विकार से संबंधित रोगों की संभावना अधिक रहेगी.

#मन्वादि तिथि - Manvadi Tithi
मन्वादि तिथियों को शुभ कार्यों में त्यागा जाता है. इन तिथियों में यात्रा, गृ्ह निर्माण, गृ्ह-प्रवेश, विवाह, व्रत का उद्यापन, उपनयन संस्कार, विद्यारम्भ आदि कार्य मन्वादि तिथियों में वर्जित है. ये तिथियाँ निम्नलिखित हैं :-

  1. चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की तृ्तीया तथा पूर्णिमा तिथि.
  2. ज्येष्ठमास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा.
  3. आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तथा पूर्णिमा तिथि.
  4. श्रावण मास की कृ्ष्ण पक्ष की अष्टमी तथा अमावस्या.
  5. भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृ्तीया.
  6. आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि.
  7. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तथा पूर्णिमा तिथि.
  8. पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि.
  9. माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि.
  10. फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि.

#महेश्वर - Maheshwar
महेश्वर का निर्धारण जैमिनी ज्योतिष में होता है. इसके लिए हम आत्मकारक से अष्टमेश को देखते हैं अर्थात कुण्डली में आत्मकारक जिस भाव में स्थित है उस भाव से अष्टम भाव के स्वामी को महेश्वर बनाया जाता है. यहाँ बलों की गणना करने की आवश्यकता नहीं होती. सभी ग्रह इसमें शामिल हैं. कोई भी ग्रह महेश्वर बन सकता है. सातों ग्रह शामिल हैं. आत्मकारक से अष्टम भाव का स्वामी महेश्वर होता है परन्तु यदि वो ग्रह स्वराशि या उच्च राशि में स्थित है तो आत्मकारक से द्वादश भाव का स्वामी महेश्वर बनता है.

#मातृ कारक - Matri Karaka
जैमिनी ज्योतिष में मातृ कारक वह ग्रह होता है जिसके भ्रातृ कारक के बाद कम अंश हों. चन्द्र इस भाव का नैसर्गिक कारक है. मातृ कारक ग्रह, कुण्डली के चतुर्थ भाव का कारक है. जैमिनी ज्योतिष में चतुर्थ भाव से संबंधित सभी प्रकार के कारकों का अध्ययन मातृ कारक से किया जाता है.

#मातृ सहम - Matri Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- चन्द्र - शुक्र + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- शुक्र - चन्द्र + लग्न

#मादला योग - Maadla Yog
यदि वर्ष कुण्डली के तीसरे, पांचवें, नवें और ग्यारहवें भाव में सभी ग्रह हों या ग्रह अपनी उच्च राशि में होकर 3,5,9,11 भावों में स्थित हों तो मादला योग बनता है.

जिस वर्ष कुण्डली में यह योग बनता है, वह वर्ष जातक के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है. जातक सभी कार्य सफलता हासिल करते हैं. आर्थिक और व्यापारिक दृष्टि से यह वर्ष जातक के लिए शुभ फलदायी होता है. जातक को उसके मन के अनुकूल फल मिलते हैं.

#मानक समय - Manak Samay[Standard Time]
विभिन्न रेखांशों पर स्थित स्थानों का स्थानीय औसत समय अलग-अलग होता है. चाहे वे एक ही स्थान या एक राज्य या एक ही देश में स्थित क्यो ना हो. यदि सभी अपने स्थानीय समय के अनुसार कार्य करेंगें तो स्थितियाँ बहुत ज्यादा खराब हो जाएगी. तब ये तय करना कठिन होगा कि किस स्मय के अनुसार कार्य करें. इस समस्या के समाधान के लिए एक सा समय, नियम और व्यवहार चुन लिया गया है जो उस देश के लिए 'मानक समय' का कार्य करता है.

1/1/1906 से सारे भारत के लिए +5:30 घण्टे का समय कटिबन्ध स्वीकार कर लिया गया और इसे 'भारतीय मानक समय' का नाम दिया गया. भारत की सब घड़ियों में समय एक सा होगा, परन्तु उन सभी स्थानों के सूर्योदय तथा सूर्यास्त स्थानीय रेखांश के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं. हिन्दु ज्योतिष में सभी गणनाओं के लिए 'स्थानीय औसत समय' अधिक महत्वपूर्ण है.

#मारक ग्रह - Maarak Grah
कुण्डली में द्वितीय स्थान और सप्तम स्थान में स्थित ग्रह, द्वितीयेश और सप्तमेश मारक ग्रह कहलाते हैं.

#मारक स्थान - Maarak Sthan
कुण्डली में द्वितीय भाव और सप्तम भाव मारक स्थान कहलाते हैं.

#मासशून्य तिथि - Masashunya Tithi
मास शून्य तिथियाँ शुभ कार्यों के लिए वर्जित होती है.

चैत्र मास की दोनों पक्षों की अष्टमी तथा नवमी तिथि.

वैशाख मास में दोनों पक्षों की द्वादशी तिथि.

ज्येष्ठमास में कृ्ष्ण पक्ष की चतुर्दशी तथा शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि.

आषाढ़ मास में कृ्ष्ण पक्ष की षष्ठी तथा शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि.

श्रावण मास में दोनों पक्षों की द्वितीया और तृ्तीया तिथि.

भाद्रपद मास की दोनों पक्षों की प्रतिपदा तथा द्वितीया तिथि.

आश्विन मास में दोनों पक्षों की दशमी तिथि तथा एकादशी तिथि.

कार्तिक मास में कृ्ष्ण पक्ष की पंचमी तथा शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि.

मार्गशीर्ष मास में दोनों पक्षों की सप्तमी तथा अष्टमी तिथि.

पौष मास में दोनों पक्षों की चतुर्थी तथा पंचमी तिथि.

माघ मास में कृ्ष्ण पक्ष की पंचमी तथा शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि.

फाल्गुन मास में कृ्ष्ण पक्ष की चतुर्थी तथा शुक्ल पक्ष की तृ्तीया तिथि.

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#माहेन्द्र कूट - Mahendra Koot
माहेन्द्र कूट का तात्पर्य - केन्द्र का बलवान होना है. जैसे कन्या का जन्म नक्षत्र रोहिणी है तो प्रथम नक्षत्र रोहिणी, चतुर्थ नक्षत्र पुनर्वसु, सप्तम नक्षत्र मघा और दशम नक्षत्र हस्त, केन्द्र नक्षत्र होते हैं.

वर का जन्मनक्षत्र कन्या के जन्मनक्षत्र से 1,4,7,10,13,16,19,22,25वाँ हो तो माहेन्द्र मिलान उत्तम होता है. माहेन्द्र कूट से दाम्पत्य जीवन के सुखमय होने का तथा संतान सुख का विचार करते हैं.

कन्या के जन्म नक्षत्र से वर के जन्म नक्षत्र तक गिने. जो संख्या प्राप्त हो उसे तीन से भाग दें. यदि शेष एक बचता है तो वह माहेन्द्र कहा जाता है. यदि शेष तीन बचेगा तो माहेन्द्र कूट का मिलान उत्तम नहीं है.

#मिथुन राशि - Mithun Rashi[Gemini Sign]
मिथुन राशि भचक्र और कालपुरुष की तीसरी राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह बुध है. इसका रंग हरा है. इस राशि में स्त्री-पुरुष हाथ में वाद्य यंत्र लिए हुए हैं. इस राशि का निवास स्थान मनोरंजन स्थल, गायकों का झुण्ड. नाचने-गाने के स्थान हैं. अन्य मत से यह राशि ग्राम और बृ्ज तथा शयन गृ्ह में वास करती है.यह द्विस्वभाव राशि है. विषम है. यह राशि पुरुष संज्ञक राशि है. स्वभाव से क्रूर राशि है. इस राशि का वर्ण शूद्र है. तत्व वायु है.

इस राशि के अधिकार क्षेत्र में दोनों हाथ,कंधें,भुजा और छाती की ओर का कुछ भाग आता है. इस राशि का प्रभाव फेफडे़,गले ओर वाणी पर भी पड़ता है. गले और छाती तक के भाग पर इस राशि का अधिकार है. इस राशि में जुकाम, श्वास संबंधी और शूल संबंधी रोग हो सकते हैं.

यह शीर्षोदय राशि है. यह शुष्क और निर्जल राशि है. यह रात्रि में बली होती है. इस राशि की प्रवृ्त्ति सम है अर्थात तीनों ही प्रवृ्त्ति इस राशि में मौजूद हैं. यह अल्प संतति या बन्ध्या राशि है. धातु/मूल/जीव में यह जीव राशि है. इस राशि का चेरा देश है.

यह राशि विद्या अध्ययन में निपुण है, शिल्पी है. यह राशि पांचवें नवांश में अपने सभी गुणों को पूर्ण रुप से प्रकट करती है. आषाढ़ मास में यह राशि शून्य रहती है. इस राशि के अन्य नाम बौध,नृ्युग्म,जितुम,द्वंद्व,यम और युग है.

इस राशि में मृ्गशिरा नक्षत्र के दो चरण, आर्द्रा नक्षत्र के चार चरण और पुनर्वसु नक्षत्र के तीन चरण आते हैं. इस राशि में का,की,कु,घ,ड़,छ,के,को,हा चरणाक्षर आते हैं.

#मीन राशि - Meena Rashi[Pisces Sign]
यह भचक्र और कालपुरुष की बारहवीं और अंतिम राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह बृ्हस्पति है. इस राशि में दो मछलियाँ बनी हैं जिनकी पूँछ एक - दुसरे के मुख में हैं. इस राशि का रंग मछली के रंग जैसा है. मतान्तर से श्वेत रंग है. इस राशि का उत्तम स्वभाव है. यह राशि दानी है. चित्त कोमल है. यह राशि नवम नवांश में अपना पूर्ण रुप दिखाती है. इस राशि के अधिकार में पैर के दोनों पंजें, पैर की अंगुली आदि आते हैं. यह आँत और पेट में भी प्रभाव डालती है. यह प्रभाव लग्न से या राशियाँ जिस भाव में जाती हैं उसके अनुसार भी पड़ता है.

यह राशि स्त्री संज्ञक राशि है. स्वभाव से सौम्य राशि है. जल तत्व राशि है. यह द्विस्वभाव राशि है. सम है. यह उभयोदय राशि है. पूर्ण जल राशि है. यह राशि दिन - रात्रि की संधि में बली होती है. इस राशि की कफ़ प्रवृ्त्ति है. इस राशि का शरीर मध्यम है. शब्द रहित राशि है. अपद राशि है. जलचर है. यह राशि बहु संतति राशि है. यह जीव राशि है.

इस राशि का निवास स्थान जल में है. यह राशि कौशल देश की स्वामी है. यह राशि वैशाख मास में शून्य रहती है. इस राशि के अन्य नाम रिष्फ, झष, अंतिम, अन्त्य, मत्स्य, पृ्थुरोम हैं. इस राशि में पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का एक चरण, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के चार चरण और रेवती नक्षत्र के चार चरण आते हैं. मीन राशि में दी, दू, थ, झ, ण, दे, दो, चा, ची चरणाक्षर आते हैं.

इस राशि के पीड़ित होने पर पैरों के रोग हो सकते हैं. जल में डूबने का भय या कोई जल के रोग हो सकते हैं.

#मुंथा - Muntha
"मुंथा" शब्द का प्रयोग वर्ष कुण्डली में किया जाता है. जन्म के समय मुंथा लग्न में होती है. उसके बाद क्रम से हर वर्ष एक भाव आगे बढ़ जाती है. मुंथा का वर्ष कुण्डली में बहुत महत्व है. मुंथा को एक ग्रह की तरह माना गया है. वर्ष कुण्डली में मुंथा जिस भाव में होती है उस भाव का विचार फलित करने में होता है. वर्ष कुण्डली में चतुर्थ, षष्ठ, सप्तम, अष्टम व द्वादश भाव में मुंथा का स्थित होना अशुभ माना गया है.

#मुंथापति - Munthapati
वर्ष कुण्डली में मुंथा जिस राशि में होती है, उस राशि का स्वामी जिस भाव में स्थित होता है उस भाव में वह मुंथापति कहलाता है.

#मुंथेश - Munthesh
वर्ष कुण्डली में जिस भाव में मुंथा होती है, उस भाव के अधिपति को या राशिश को मुंथेश कहते हैं. वर्ष कुण्डली में मुंथेश की स्थिति का अध्ययन महत्वपूर्ण है.

#मुक्तावली योग - Muktavali Yog
वर्ष कुण्डली में सातवें भाव से लग्न तक सभी पाप ग्रह क्रम से हों तो मुक्तावली योग बनता है. यह योग अशुभ है. इस योग में कुण्डली के महत्वपूर्ण भावों में (आयु भाव, भाग्य भाव, कर्म भाव ) में पाप ग्रह होने से अनुकूल फल मिलने में बाधाएं आ सकती हैं.

जिस वर्ष कुण्डली में इस प्रकार का योग हो, उस वर्ष में किसी से विवाद हो सकता है, सरकार से हानि, बीमारी, मानसिक परेशानी, आर्थिक कष्ट बने रहते हैं.

#मुण्डन संस्कार मुहूर्त - Mundan Sanskar Muhurta
बच्चे का मुण्डन संस्कार उसके जन्म के पहले, तीसरे, पांचवें या सातवें वर्षों में करना चाहिए अर्थात मुण्डन संस्कार में विषम वर्षों को लेना चाहिए. सूर्य उत्तरायण में हो तथा संस्कार पूर्वान्ह में करना चाहिए. चैत्र मास को छोड़कर अन्य उत्तरायण मासों में - वैशाख, ज्येष्ठा, आषाढ़ मास में केवल 20 जून तक, माघ, फाल्गुन माह को मुण्डन संस्कार के लिए लेना चाहिए.

शुभ तिथियाँ - शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृ्तीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, त्रयोदशी, तथा पूर्णिमा आदि तिथियों को ले सकते हैं.

नक्षत्र - स्वाती, ज्येष्ठा, श्रवण, अभिजीत, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्रों में मुण्डन कार्य कर सकते हैं. संक्रान्ति आदि दिनों का त्याग करें.

कुछ लोग अपने घर के रिवाजों के अनुसार भी मुण्डन संस्कार को करते हैं. इसमें नवरात्रों, अक्षय तृ्तीया आदि शुभ दिनों में बिना किसी मुहूर्त के मूण्डन कर्म किया जाता है. जिस मास में बच्चे का जन्म हुआ है वह मास मुण्डन कर्म में नहीं लिया जाता है. जन्म राशि या जन्म नक्षत्र लेना शुभ है. मुण्डन के मुहूर्त में जन्म राशि या जन्म लग्न से अष्टम लग्न नहीं होना चाहिए.

बच्चे की माता यदि रजस्वला या गर्भवती हो, तो मुण्डन कार्य नहीं कराना चाहिए. लेकिन गर्भ यदि पांच माह से अधिक का हो तब करा सकते हैं. यदि रजस्वला है और बालक की उम्र पांच वर्ष से अधिक हो तब दोष नहीं होता है. ज्येष्ठ(बडे़) लड़के का मुण्डन ज्येष्ठ माह में शुभ नहीं है. उसका मुण्डन तब नहीं कराना चाहिए.

#मुहुर्त - Muhurta
किसी भी कार्य को पहली बार शुरु करने के लिए एक "अच्छे समय" का चयन किया जाता है. सभी की यही इच्छा होती है कि किसी भी कार्य का शुभारम्भ शुभ समय में हो, जिससे कि कार्य के परिणाम सुखद हों. किसी भी कार्य को करने के लिए एक शुभ समय का चयन करना ही "मुहुर्त" है.

#मूल त्रिकोण बल - Mool Trikon Bal
जैमिनी ज्योतिष में मूल त्रिकोण बल की गणना यदि ग्रह अपनी उच्च राशि में है तो उसे 70 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा.

मूल त्रिकोण राशि में है तो 60 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा.

स्वग्रही है तो 50 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा

मित्र राशि में ग्रह है तो उसे 40 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा.

सम राशि में ग्रह है तो उसे 30 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा.

शत्रु राशि में ग्रह है तो उसे 20 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा.

नीच राशि में ग्रह है तो उसे 10 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा.

#मूल नक्षत्र - Mool Nakshatra
आकाश में मूल नक्षत्र धनु राशि में 0 अंश से 13 अंश 20 कला तक रहता है. क्रान्ति वृ्त्त से 13 अंश 47 कला 16 विकला दक्षिण में तथा विषुवत रेखा से 37 अंश 6 कला 7 विकला दक्षिण में स्थित है. मूल नक्षत्र में 11 तारे हैं जो बिच्छू की पूँछ बनाते हैं. भारतीय विद्वानों ने इस तारा समूह को सिंह पूँछ जैसे माना है. मूल नक्षत्र दिसम्बर के मध्य, प्रात: पूर्व दिशा में उदय होता है. अगस्त मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के बीच दक्षिणी आकाश में इसे शिरोबिन्दु पर देखा जा सकता है. आकाश में बिच्छू की आकृ्ति स्पष्ट दिखाई देती है. बिच्छू का मुँह उत्तर पश्चिम और पूँछ दक्षिण पूर्व अग्निकोण में है.

भचक्र के तीसरे तिहाई भाग का यह प्रथम नक्षत्र है. मूल नक्षत्र को महत्व प्रदान करने के लिए ही सभी तिहाई भाग के प्रथम व नवम नक्षत्र, मूल संज्ञक माने गए हैं. आकाश गंगा के मध्य स्थित होने से इसे मूल (केन्द्र या जड़) नाम मिला है. मूल नक्षत्र का मुख्य तारा शौला बिच्छू का डंक है. मूल नक्षत्र सबसे दक्षिणी नक्षत्र है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह केतु है.

मूल का अर्थ है किसी पेड़ या पौधे की जड़, केन्द्र बिन्दु या सारतत्त्व. इस नक्षत्र का मूल नाम ही इसके गुणों की पहचान करा देता है. मूल नक्षत्र का प्रतीक चिह्न - " कुछ कन्द मूल परस्पर बँधे हुए " हैं. मूल शब्द का अर्थ जडे़ जमाना, जड़ से उखाड़ना जैसे वाक्य आज भी प्रचलन में हैं. जड़ सदा भूमि में अन्दर ही छिपी रहती है. इसलिए मूल नक्षत्र का संबंध भूमि में दबी हुई, छिपी हुई, गुप्त मनोभाव, अव्यक्त इच्छाएँ, अनजाने क्षेत्र तथा अज्ञात घटनाओं के साथ जोडा़ जाता है या हम कह सकते है कि जो भी छिपा हुआ है, अनजाना है, गुप्त व रहस्यपूर्ण है उसका कारकत्व मूल नक्षत्र को प्राप्त है.

मूल शब्द का प्रयोग अपनी संस्कृ्ति, सभ्यता, समाज व पुरातन मान - मूल्यों से जुड़ने के लिए होता है. जो परम्परा सालों से चली आ रही है, उसे पुन: प्राप्त कर लेना ही, मूल नक्षत्र का विशेष गुण है. यह भचक्र की अंतिम चार राशियों वाले तिहाई भाग का प्रथम नक्षत्र है. हर तिहाई भाग केतु के नक्षत्र से शुरु होता है ओर बुध के नक्षत्र पर खतम होता है.

मूल नक्षत्र का स्वामी ग्रह केतु है. केतु का सिर भले ही राहु के साथ चला गया है परन्तु हाथ - पाँव सही सलामत हैं. संचित कर्मों का वह अंश जो फल देने योग्य है, वही प्रारब्ध बन कर इस जन्म में जातक के सम्मुख प्रगट होता है. पिछले जन्मों का ज्ञान व अनुभव केतु के पास सुरक्षित है. अत: केतु का मूल नक्षत्र, जातक को विगत जन्मों से प्राप्त ज्ञान, अनुभव व दक्षता या प्रतिभा की सहायता से सुख समृ्द्धि और सफलता देता है. मूल नक्षत्र जातक अपने संस्कार से अपना लक्ष्य पाने में सफल होता है.

आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र में वृ्क्ष के पाँच अंग फूल, पत्ती, छाल, तना व मूल का उपयोग होता है. अत: मूल नक्षत्र का संबंध औषधि निर्माण व रोग चिकित्सा से जोडा़ जाता है. मतान्तर से अन्य विद्वान रोग की जड़ या रोग का मूल कारण - सूक्ष्म जीवाणु, बैक्टीरिया आदि को भी मूल नक्षत्र के अधिकार क्षेत्र में मानते हैं.

मूल नक्षत्र की देवी "नृ्ति" को माना गया है. पोराणिक साहित्य में देवी नृति को अधर्म व हिंसा की पुत्री तथा भय व मृ्त्यु की माता माना गया है. इन बातों से लगता है कि मूल नक्षत्र को लौकिक दृ्ष्टि से शुभ नहीं माना गया है. लेकिन नृ्ति देवी को दुख: दरिद्रता व दुर्भाग्य की देवी नहीं मानना चाहिए. वह सडी़ - गली वस्तुओं को नष्ट कर नव निर्माण की भूमिका तैयार करती हैं. मूल नक्षत्र भारी उथल - पुथल के बाद सत्य, समानता, न्याय व अहिंसा की जड़ों को जमाता है.

विद्वानों ने मूल नक्षत्र की जाति कसाई जाति को माना है. इस वर्गीकरन में मूल नक्षत्र के विनाशकारी गुणों की पहचान मिलती है. विद्वानों का मत है कि जेसे कसाई पशु वध कर समाज को भोजन देता है उसी प्रकार देवी काली राक्षसों का वध कर समाज को सुऱक्षा व व्यवस्था प्रदान करती है.

मूल नक्षत्र को नपुंसक माना जाता है. मूल नक्षत्र में स्त्री व पुरुष दोनो के गुण मिलने की वजह से ऎसा संभव हो. क्योंकि कहीं तो मूल नक्षत्र की अधिष्ठात्री देवी नृ्ति या काली को माना गया है तो कभी भयंकर नर राक्षस को इसका अधिष्ठाता देवता माना गया है. किन्तु तर्क संगत तो यह है कि जो नक्षत्र आकाश गंगा के केन्द्र या मूल को दर्शाता है उसका लिंग विचार करना संभव ही नहीं है. उसे उभयलिंगी या अर्धनारीश्वर कहना अधिक उचित लगता है.

मूल नक्षत्र के अंग दोनों पाँवों को माना गया है. धड़ के बाएँ भाग का संबंध मुल नक्षत्र से माना जाता है. इस नक्षत्र को वायु या वात प्रधान माना गया है. विद्वानों ने दक्षिण पश्चिम या नैऋत्य कोण को मूल नक्षत्र की दिशा माना है. मतान्तर से कुछ विद्वान उत्तर पश्चिम वायव्य कोण, उत्तर पूर्व ईशान कोण तथा पूर्व दिशा को भी मूल नक्षत्र की दिशा मानते हैं. कुछ विद्वानों का मत है कि मूल का संबंध केन्द्र या मध्य भाग से है अत: इसकी दिशा का निर्धारण करना ही व्यर्थ है.

मूल नक्षत्र को तामसिक नक्षत्र माना गया है. मूल को राक्षस गण माना गया है. यह अधोमुखी नक्षत्र है. इसे कठोर, तीक्ष्ण व क्रूर या दारूण नक्षत्र कहा है. जून मास में पड़ने वाले ज्येष्ठ मास के उत्तरार्ध को मूल नक्षत्र का मास व दोनों पक्षों की प्रथमा और चतुर्थी को मूल नक्षत्र की तिथि माना जाता है. विद्वानों ने मूल नक्षत्र को श्वान या कुत्ता योनि माना है.

मूल ऩक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर 'ये' है. द्वितीय चरण का नामाक्षर 'यो' है. तृ्तीय चरण का नामाक्षर 'भा' है. चतुर्थ चरण का नामाक्षर 'भी' है. मूल नक्षत्र को महर्षि पुलस्त्य का वंशज माना जाता है. पुलस्त्य का अर्थ है सुकोमल केश. मूल नक्षत्र, जीवात्मा की आध्यात्मिक यात्रा में बहुमूल्य योगदान करता है.


#मृगशिरा नक्षत्र - Mrigashira Nakshatra
मृ्गशिरा नक्षत्र वृ्ष राशि में 23 अंश 20 कला से 30 अंश तक रहता है अर्थात मृ्गशिरा नक्षत्र के दो चरण वृ्ष राशि में आते हैं. इस नक्षत्र के बाकि दो चरण, 0 अंश से 6 अंश 40 कला तक मिथुन राशि में पड़ते हैं. इस नक्षत्र का स्वामी मंगल होने से यह नक्षत्र शक्ति, साहस व सूझबूझ का प्रतिनिधि है. यह क्रान्ति वृ्त्त से 13 अंश 22 कला 12 विकला दक्षिण में और विषुवत रेखा के ऊपर या उत्तर में होने से क्रान्तिवृ्त्त व विषुवत रेखा के बीच में पड़ता है.

यह नक्षत्र मृ्ग मंडल के ऊपरी भाग में स्थित है. इसमें तीन मंद क्रान्ति के तारे हैं जो एक छोटा त्रिभुज बनाते हैं. यह त्रिभुज किसी मृ्ग का सिर जान पड़ता है. इसलिये इसे मृ्गशिरा नाम दिया गया है. निरायन सूर्य 7 जून को मृ्गशिरा नक्षत्र में प्रवेश करता है. मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा मृ्गशिरा नक्षत्र में होता है.

मृ्गशिरा नाम से हिरण का बोध होता है. हिरण एक सौम्य प्रकृ्ति व परोपकारी जीव है. मृ्गशिरा नक्षत्र में पूर्णिमा होने से अग्रहायण मास आज भी कुछ स्थानों में वर्ष का प्रथम मास माना जाता है. कुछ विद्वान मृ्गशिरा नक्षत्र का प्रतीक सोमपात्र या अमृ्त कुंभ को मानते हैं. अमृ्त देव गण का दैवीय पेय है जो उन्हे स्वस्थ, सबल व अमर बनाता है. मृ्गशिरा या हिरण का सिर, हिरण के स्वभाव को दर्शाता है. हिरण चंचल, कोमल, भीरू व भ्रमण प्रिय है.

मृ्गशिरा नक्षत्र के देवता चन्द्रमा है. चन्द्रमा औषधि व आरोग्य से जुडा़ है. मृ्गशिरा का परिचय यदि एक शब्द में देना हो तो हम इसे "अन्वेषण" या "खोज" कहेंगे. सभी विद्वानों ने इसे जिज्ञासा प्रधान नक्षत्र माना है. अपने ज्ञान व अनुभव का विस्तार करना, इसके जीवन का एकाकी लक्ष्य होता है. बुध की राशि मिथुन, मृ्गशिरा नक्षत्र में आरंभ होती है अत: इसे विवेक, निष्कर्म व परिपक्व धारणा का नक्षत्र भी माना जाता है. ऎसा जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है.

कुछ विद्वानों ने इस नक्षत्र को बुनकर द्वारा बुने जाने वाले वस्त्र से दर्शाया है. कुछ इसी प्रकार मृ्गशिरा नक्षत्र भी जीव के गुणों को विकसित कर, उसे परमात्मा की ओर ले जाता है. मृ्गशिरा नक्षत्र एक निश्चेष्ट नक्षत्र सरीखा है. एसा जातक दूसरों की उपस्थिति, प्रभाव को सहज व निर्विरोध रुप से स्वीकारता है. ऎसे जातक को प्रसिद्धि व यश की कामना नहीं होती. अपने से अधिक औरों की चिन्ता होती है.

मृ्गशिरा नक्षत्र की जाति विद्वानों ने कृ्षक, बुनकर या हस्तशिल्पी माना है. अन्य शब्दों में भूमि सुधार , भवन निर्माण या जन-सुविधा के कार्यों से जुडे़ कर्मचारियों या उद्योगों में श्रमिक शक्ति, का संबंध मृ्गशिरा से माना जाता है. मृ्गशिरा नक्षत्र को स्त्री या पुरुष ना मान कर उभयलिंगी माना गया है. इस नक्षत्र में स्त्री व पुरुष दोनों के गुण मिलते हैं. क्योंकि इस नक्षत्र के स्वामी चन्द्र और मंगल दोनों हैं.

विद्वानों ने नेत्र व नेत्रों के ऊपर भौंहों को मृ्गशिरा नक्षत्र का हिस्सा माना है. इस नक्षत्र का संबंध पित्त दोष से है. मंगल अग्नि तत्व ग्रह होने से पित्त कारक है तथा इस नक्षत्र को मंगल की ऊर्जा का स्त्रोत माना गया है.यहाँ मंगल की शक्ति, विनाश, हिंसा या ध्वंसात्मक नहीं है. अपितु रचनात्मक है. मृ्गशिरा नक्षत्र की दिशा दक्षिण - पश्चिम तथा उत्तर - पश्चिम के मध्य का भाग मृ्गशिरा नक्षत्र की दिशा मानी गई है.

मृ्गशिरा नक्षत्र के व्यवसाय सभी प्रकार के गायक व संगीतज्ञ, चित्रकार , कवि, भाषाविद, रोमांटिक उपन्यासकार, लेखक, विचारक या मनीषी. भूमि भवन, पथ या सेतु निर्माण से जुडे़ यंत्र, वस्त्र उद्योग से जुडे़ कार्य, फैशन डिजायनिंग, पशुपालन या पशुओं से जुडी़ सामग्री का उत्पादन व वितरण. प्रशिक्षण कार्य,शिल्पी क्लर्क , प्रवचन कर्ता, संवादाता आदि जैसे विवध कार्य इस नक्षत्र में आते हैं.

मृ्गशिरा नक्षत्र का स्थान वनक्षेत्र, खुले मैदान, चरागाह, हिरण उद्यान, गाँव व उपनगर, शयनकक्ष, नर्सरी व प्ले स्कूल, विश्राम गृ्ह, मनोरंजन कक्ष या स्थल, फुटपाथ, गलियाँ, कला व संगीत स्टूडियो, छोटी दुकानें, बाजार या पटरी बाजार, ज्योतिष व आध्यात्मिक संस्थाएं और मृ्गशिरा नक्षत्र संबंधी व्यवसायों से जुडे़ सभी स्थान.

मृ्गशिरा नक्षत्र तमोगुणी या तामसिक नक्षत्र है. वृ्ष राशि और मंगल नक्षत्र दोनों तमोगुणी हैं इसी वजह से इस नक्षत्र को तमोगुणी कहा गया है. इस नक्षत्र का गण देव गण है. इस नक्षत्र का संबंध मनुष्यों से कम व देवताओं से अधिक है. मृ्गशिरा को सतही या समतल नक्षत्र भी कहा जाता है. मार्गशीर्ष मास का प्रथम पक्ष तथा सभी मासों की शुक्ल और कृ्ष्ण पंचमी को मृ्गशिरा का मास व तिथि होती है. मृ्गशिरा मास का अन्य नाम अग्रहायणी नक्षत्र भी है.

मृ्गशिरा नक्षत्र पर मंगल, शुक्र तथा बुध का प्रभाव स्पष्ट दिखता है. कुछ विद्वान मंगल को मृ्गशिरा नक्षत्र का स्वामी या अधिपति ग्रह मानते हैं. मृ्गशिरा नक्षत्र के प्रथम दो चरण वृ्ष राशि में तो अंतिम चरण मिथुन राशि में होने से शुक्र व बुध की ऊर्जा को मिलाने वाला सेतु भी कहा जाता है. विद्वानों का मत है कि मंगल+बुध या मंगल+शुक्र अथवा बुध+शुक्र या मंगल+बुध+शुक्र का परस्पर दृ्ष्टि युति या राशि परिवर्तन या राशि संबंध भी मृ्गशिरा नक्षत्र की ऊर्जा प्रदान करता है.

मृ्गशिरा नक्षत्र का प्रथम चरण का अक्षर 'वे' है. दूसरे चरण का अक्षर 'वो' है. तीसरे चरण का अक्षर 'का' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'की' है. मृ्गशिरा नक्षत्र की योनि सर्प योनि है. इस नक्षत्र को महर्षि पुलस्त्य का वंशज माना जाता है.

#मृ्तसंज्ञक तिथि- Mritsanjak Tithi
मृ्तसंज्ञक तिथियों में शुभ कार्य वर्जित है. इन तिथियों में किये गये कार्य सफल नही होते.

  1. रविवार और मंगलवार को नन्दा तिथियाँ.
  2. सोमवार और शुक्रवार को भद्रा तिथियाँ.
  3. बुधवार को जया तिथियाँ.
  4. बृ्हस्पतिवार को रिक्ता तिथियाँ.
  5. शनिवार को पूर्णा तिथियाँ. मृ्तसंज्ञक तिथियाँ कहलाती हैं.

#मृ्त्यु सहम - Mrityu Saham
दिन व रात्रि वर्ष प्रवेश दोनों :- अष्टम भाव का भोगांश - चन्द्र + शनि

#मृ्दु या मैत्र नक्षत्र - Mridu or Maitra Nakshatra
मृ्गशिरा नक्षत्र, चित्रा, अनुराधा व रेवती नक्षत्र ये चार नक्षत्र मृ्दु या मैत्र नक्षत्र है. इनमे सभी कोमल कार्य या मित्रतापूर्ण कार्य करना श्रेष्ठ होता है.

#मेष राशि - Mesh Rashi[Aries Sign]
मेष अर्थात मेढे के समान आकृ्ति. यह भचक्र की और कालपुरुष की प्रथम राशि है. यह पहले नवांश में अपने स्वभाव को प्रकट करती है. यह चौपाया राशि है. भचक्र की यह छोटे कद की राशि है. यह आभारहित राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह मंगल है. इस राशि का रंग लाल है. यह चर राशि है. यह पुरुष संज्ञक राशि है. स्वभाव से क्षत्रिय राशि है. इसीलिये इस राशि में ऊर्जा का स्त्रोत सबसे अधिक माना जाता है. काफी ऊर्जावान,बलशाली राशि है. यह राशि साहसी,अभिमानी,अपने मित्रों पर कृ्पा रख्नने वाली राशि है.

यह विषम राशि है. शुष्क व निर्जल राशि है. इस राशि का निवास स्थान वन है. वनचर राशि है. यह धातु रुप राशि है. अल्प संतति राशि है. इस राशि की पित्त प्रवृ्त्ति है. मेष राशि का शरीर के भीतरी अवयवों पर प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है. शरीर के बाहरी हिस्से का सिर का भाग इस राशि के अन्तर्गत आता है. इस राशि के पीड़ित होने पर शरीर में उष्णता बढ़ने की संभावना हो सकती है. जठाराग्नि,पित्त,तेज बुखार आदि रोग इस राशि के पीड़ित होने पर हो सकते हैं.

मेष राशि में अश्विनी नक्षत्र के चार चरण,भरणी नक्षत्र के चार चरण और कृ्त्तिका नक्षत्र का एक चरण आता है. इस राशि में चू,चे,चो,ला,ली,लू,ले,लो और अ चरणाक्षर आते हैं. यह राशि श्रावण मास में शून्य राशि कहलाती है. इस राशि की पूर्व दिशा है. यह राशि पाटल देश की स्वामी है.

#लुप्त संवत्सर दोष - Lupta Samvatsar Dosh
मेष, वृष, मीन, कुम्भ राशियों को छोड़कर बाकी बची राशियों में अतिचारी वक्री गुरु जब अपनी पूर्व राशि में लौट जाता है, वह वर्ष लुप्त संवत्सर होता है. गंगा व नर्मदा के बीच के प्रदेशों में लुप्त संवत्सर दोष विशेषतया होता है. गर्ग मत के अनुसार स्वराशि में गुरु हो तब लुप्त संवत्सर दोष नहीं होता है.

अन्य मत से गुरु व शुक्र जब तक समसप्तक में रहें, वह मास शुभ कार्यों में वर्जित होता है.


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