भीष्म द्वादशी 2024, जाने पूजा मुहूर्त और कथा

भीष्म द्वादशी का पर्व माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को किया जाता है. यह व्रत भीष्म पितामह के निमित्त किया जाता है. इस दिन महाभारत की कथा के भीष्म पर्व का पठन किया जाता है, साथ ही भगवान श्री कृष्ण का पूजन भी होता है. पौराणिक मान्यता अनुसार भीष्म अष्टमी के दिन ही भीष्म पितामह ने अपने शरीर का त्याग अष्टमी तिथि को किया था लेकिन उनके निमित्त जो भी धार्मिक कर्मकाण्ड किए गए उसके लिए द्वादशी तिथि का चयन किया गया था.अत: उनके निर्वाण दिवस के पूजन को इस दिन मनाया जाता है.

भीष्म द्वादशी पूजा मुहूर्त

  • इस वर्ष भीष्म द्वादशी 21 फरवरी 2024 को बुधवार के दिन मनाई जाएगी.
  • द्वादशी तिथि आरंभ - 20 फरवरी 2023, 09:56 से.
  • द्वादशी समाप्त - 21 फरवरी 2023, 11:27.

भीष्म द्वादशी कथा

महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं. पांडवों के लिए भीष्म को हरा पाना असंभव था. इसका मुख्य कन था की उन्हें इच्छा मृ्त्यु का वरदान प्राप्त था. वह केवल अपनी इच्छा से ही प्राण त्याग सकते थे. युद्ध में भीष्म पितामह के कौशल से कौरव हार ही नहीं सकते थे. उस युद्ध में पितामह को पराजित करने के लिए एक योजना बनाई गई. इस योजना का मुख्य केन्द्र शिखंडी था. पितामह ने प्रण लिया था की वह कभी किसी स्त्री के समक्ष शस्त्र नहीं उठाएंगे. इसलिए उनकी इस प्रतिज्ञा का भेद जब पांडवों को पता चलता है. तब एक चाल चली जाती है. युद्ध समय पर शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर दिया जाता है. अपनी प्रतिज्ञा अनुसार पितामह शिखंडी पर शस्त्र नहीं उठाते हैं. शस्त्र न उठाने के कारण भीष्म पितामह युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र नहीं उठाते हैं. इस अवसर का लाभ उठा कर अर्जुन उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं. पितामह बाणों की शैय्या पर लेट जाते हैं.

परंतु उस समय भीष्म पितामह अपने प्राणों का त्याग नहीं करते हैं. सूर्य दक्षिणायन होने के कारण भीष्म पितामह ने अपने प्राण नहीं त्यागे. सूर्य के उत्तरायण होने पर ही वे अपने शरीर का त्याग करते हैं. भीष्म पितामह ने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे. पर उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई. इस कारण से माघ मास के शुक्ल पक्ष द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है.

भीष्म द्वादशी पर की पूजा विधि

  • भीष्म द्वादशी के दिन नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.
  • सूर्य देव का पूजन करना चाहिए.
  • तिल, जल और कुशा से भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण करना चाहिए.
  • तर्पण का कार्य अगर खुद न हो पाए तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा इसे कराया जा सकता है.
  • ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देनी चाहिए.
  • इस दिन अपने पूर्वजों का तर्पण करने का भी विधान बताया गया है.
  • इस दिन भीष्म कथा का श्रवण करना चाहिए. मान्यता है कि इस दिन विधि विधान के साथ पूजन इत्यादि करने से व्यक्ति के कष्ट दूर होते हैं.
  • पितृरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस पूजन से पितृ दोष से भी मुक्ति प्राप्त होती है.

भीष्म द्वादशी पर करें तिल का दान

भीष्म द्वादशी का दिन तिलों के दान की महत्ता भी दर्शाता है. इस दिन में तिलों से हवन करना. पानी में तिल दाल कर स्नान करना और तिल का दान करना ये सभी अत्यंत उत्तम कार्य बताए गए हैं. तिल दान करने से अपने जीवन में खुशियों का आगमन होता है. सफलता के दरवाजे खुलते हैं. हिंदू धर्म में इस दिन को लेकर अलग-अलग तरह की मान्यताएं हैं, लेकिन इस पर्व पर तिलों को बेहद ही महत्वपू्र्ण माना जाता.

भीष्म द्वादशी के दिन तिलों के दान से लेकर तिल खाने तक को शुभ बताया गया है. हिन्दू धर्म में तिल पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय माने जाते हैं. शुद्ध तिलों का संग्रह करके यथाशक्ति ब्राह्मणों को दक्षिणासहित तिल का दान करना चाहिए. तिल के दान का फल अग्निष्टोम यज्ञ के समान होता है. तिल दान देने वाले को गोदान करने का फल मिलता है.

क्यों मिला था भीष्म पितामह को “ इच्छा मृत्यु” का वरदान

महाभारत की कथा अनुसार ​हस्तिनापुर में शांतनु नामक राजा और उनकी पत्नी गंगा के पुत्र देवव्रत थे. देवव्रत के जन्म के बाद अपने वचन के मुताबिक गंगा, शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं. शांतनु अकेले रह जाते हैं. एक बार राजा शांतनु, जब सत्यवती नाम की कन्या से भेंट होती है. सत्यवती के रूप पर मोहित हो जाते हैं. उनसे विवाह के लिए आग्रह करते हैं. राजा शांतनु सत्यवती के पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा. उनके पिता शर्त के रुप में उनके सामने सत्यवती की संतान ही राज्य की उतराधिकारी बनाने की शर्त रखते हैं.

राता शांतनु इस शर्त को अस्वीकार कर देते हैं. परंतु के पुत्र देवव्रत को जब इस बात का पता चलता है, तो वह अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं और सत्यवती की संतानों को राज्य का उत्तराधिकारी होने का वचन देते हैं. इसके बाद सत्यवती का विवाह शांतनु से होता है. पुत्र की कठोर प्रतिज्ञा सुनकर, राजा शांतनु देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं. इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत को भीष्म नाम प्राप्त होता है.

अष्टमी के दिन भीष्म ने प्राण त्यागे, द्वादशी को होती है पूजा

माघ मास में शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी का समय तर्पण और पूजा-पाठ के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. इस दिन स्नान दान का भी अत्यंत ही शुभ फल मिलता है. इस दिन को तिल द्वादशी भी कहते हैं. इसलिए इस दिन तिलों का दान और सेवन दोनों ही कार्य उत्तम होते हैं. मान्यता है कि पांडवों ने इस दिन पितामह भीष्म का अंतिम संस्कार किया था. इसलिए इस दिन को पितरों के लिए तर्पण और श्राद्ध करना शांति प्रदान करने वाला होता है.

मान्यता है कि भीष्म द्वादशी के दिन उपवास रखने से व्यक्ति की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. जीवन में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस द्वादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन भी किया जाता है. ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं और सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देने से सुख की वृद्धि होती है. द्वादशी के दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है. इस दिन गरीबों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन किया जाता है. इस व्रत से समस्त पापों का नाश होता है. इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. भीष्म द्वादशी का उपवास संतोष प्रदान करता है.