ललिता सप्तमी, का पूजा समय विधि एवं महत्व

ललिता सप्तमी भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी पर देवी ललिता सप्तमी मनाई जाती है. देवी ललिता जी को भगवान श्री कृष्ण एवं श्री राधा जी के साथ संबंधित किया जाता है. भाद्रपद माह की  शुक्ल पक्ष की सप्तमी में ललिता सप्तमी होती है ओर दूसरी ओर ललिता षष्ठी एवं ललिता ज्यती के रुप में देवी लक्ष्मी, देवी पार्वती जे स्वरुप में मां ललिता का पूजन होता है. यह दो नाम अलग लग स्वरुप को दर्शाते हैं किंतु दोनों के मध्य जो शक्ति व्याप्त है वह अनुकल्पनीय है. दोनों देवियों को अलग-अलग स्वरुप में देखा जा सकता है तो उन्हें एक स्वरुप भी माना गया है.

भाद्रपद माह में आने वाली कई तिथियां महत्वपुर्ण हैं क्योंकि इसी समय पर श्री कृष्ण भगवान, जन्म, बलराम जी का जन्म, श्री राधा जी का जन्म, एवं ललिता जी का जन्म भी अता है. इसी के साथ भाद्रपद माह जीवन का वह समय होता है जब प्रकृति का नवीन एवं बदला हुआ स्वरुप देखने को मिलता है. अत: इस समय पर जब भगवान की लीला का निर्माण हुआ तो इस निर्माण में समस्त देवी देवताओं का प्रादुर्भाव भी हुआ. इसी क्रम में देवी ललिता जी राधा जी की सखी के रुप में जन्म लेती हैं. ललिता जी का संबंध कृष्ण एवं राधा के साथ सदैव घनिष्ट रहा है. 

ललिता सप्तमी श्री ललिता देवी के सम्मान में मनाई जाती है. यह ललिता देवी का प्रकटन दिवस है जो राधादेवी की घनिष्ठ मित्र थीं, ललिता सप्तमी भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को पड़ती है और इसके अगले दिन राधा जन्म का समय राधा अष्टमी के रुप में मनाया जाता है. ललिता देवी राधा के प्रति सबसे समर्पित गोपी में से एक थी, यह एक बहुत ही शुभ दिन है जिसका बहुत महत्व है. ललिता सप्तमी राधाष्टमी के समय से एक दिन पहले आती है. ललिता देवी राधारानी और भगवान कृष्ण की सबसे प्रिय भी थीं. इस दिन भगवान कृष्ण के साथ ललिता देवी की पूजा करना अत्यंत शुभ माना जाता है.

उत्तर भारत में ललिता सप्तमी 

भारत के इस क्षेत्र में इस पर्व का विशेष रंग देखने को मिलता है. बज्र, मथुरा, वृंदावन इत्यादि में इस पर्व की काफी महत्ता है. ललिता जी से संबंधित अनेक कथाएं भी हमें यहां स्थान-स्थान पर सुनने को मिलती हैं. देवी ललिता जी को राधा कृष्ण के मध्य का सेतु भी कहा जाता है. इन दोनों के साथ देवी का ऎसा संबंध रहा जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ता गया है. देवी भगवान के प्रेम की साक्षी बनीं तथा जगत कल्याण में उनकी भूमिका का भी विशेष महत्व रहा है. भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन ब्रज मंडल में ललिता जी के स्त्रोत पूजन की व्यवस्था बहुत ही सुंदर रुप से की जाती है. हर ओर देवी के नाम की ध्वनी गूंजती है. देवी के पूजन के साथ भगवान श्री कृष्ण एवं राधारानी का भी पूजन किया जाता है. 

गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय अनुसार ललिता सप्तमी

ललिता देवी राधारानी और कृष्ण की पारंपरिक गौड़ीय वैष्णव पूजा में आठ गोपियों में से एक हैं. आठ वरिष्ठ गोपियों, अष्टसखियों में ललिता सबसे अग्रीण स्थान रखती हैं. अष्टसखियों में देवी ललिता, विशाखा, चित्रलेखा, चंपकलता, तुंगविद्या, इंदुलेखा, रंगदेवी और सुदेवी जी का नाम आता है. इन अष्ट सखियों को शक्ति का रुप भी माना गया है. इन्हीं के द्वारा सृष्टि में शुभता स्थिरता एवं सांजस्य मौजूद है. 

अष्टसखियां अपनी प्रिय राधा और कृष्ण के लिए आध्यात्मिक प्रेम दर्शाती हैं. राधा-कृष्ण के प्रति वे जो प्रेम रखते हैं, उसकी बराबरी या उससे अधिक कोई नहीं कर सकता है. दोनों के मध्य होने वाले विवाद में ललिता जी सदैव राधा जी के समक्ष होती थीं किंतु वह विवाद को शांत कर देने में भी आगे रहती थीं. वह राधारानी से 14 साल, 8 महीने और 27 दिन बड़ी मानी जाती हैं और इन्हें चौदह वर्ष की कन्या के रुप में अत्यंत ही सौदर्य स्वरुपा बताया गया है. देवी ललिता श्री कृष्ण के गोपी मित्रों में सबसे पुरानी हैं. ललिता देवी को राधा की निरंतर और वफादार दोस्त के रूप में याद किया जाता है. ललिता जी हल्के पीले रंग की उपस्थिति को दर्शाती हैं और इन्हें यह रंग अत्यंत प्रिय भी है. देवी के वस्त्र मोर पंख के समान हैं.

ललिता सप्तमी से संबंधित कथाएं

ललिता जी के स्म्दर्भ में कई लोक कथाएं प्रचलित हैं जो उनके समर्पण शक्ति एवं स्नेह को दर्शाती हैं. माना जाता है कि जब बचपन में राधा और कृष्ण  किसी खेल में व्यस्त रहते थे तभी खेल के दौरान , अगर उनके चरण कमलों में पसीने की एक बूंद आती है, तो ललिता देवी लाखों रूप लेती हैं और जल्दी से उसे हटा देती हैं. वह सदैव उनके प्रति सेवा एवं प्रेम को प्रकट करती हैं. अपने प्रिय राधा-कृष्ण के प्रति उनके हृदय में अत्यंत ही गहरी भावना मौजूद है. अपनि निष्ठा एवं सेवा भाव को हर पल प्रकट करती हैं. राधा कृष्ण की सभी आठ सिद्धांत सखियाँ ललिता देवी के मार्गदर्शन में ही रहती हैं. राधा और कृष्ण की सेवा के लिए अपने संरक्षक के रूप में ललिता देवी का सम्मान करते हैं. मान्यताओं के अनुसार देवी ललिता जी का जन्म करेहला गांव में हुआ था. उनके पिता उन्हें उक्कागांव ले आए थे. इस स्थान पर एक चट्टान है जिसमें देवी के चरण कमलों के निशान आज भी व्याप्त माने जाते हैं. ललिता देवी और उनकी सहेलियों द्वारा भगवान कृष्ण को खिलाने के लिए उपयोग किए जाने वाले बर्तन आज भी मौजूद माने जाते हैं कभी-कभी, सूरज की रोशनी में, यह सभी चिन्ह प्रकाशित भी होते हैं. 

ललिता सप्तमी का महत्व

ब्रजभूमि और वृंदावन में राधारानी और भगवान कृष्ण दो सखियों, ललिता और विशाखा को अत्यधिक देखा जा सकता है. मंदिरों में इन गोपियों का स्थान सर्वोपरी रहा है. ललिता जी की मित्र व्यवहार सभी के लिए अनुकरणिय रहता है. इनकी भक्ति के सामने सभी देव भी नतमस्त होते हैं. देवी अपने मित्र के सुख दुख एवं प्रत्येक क्षम में साथ देती हैं. देवी ललिता जी की एकमात्र इच्छा राधा और कृष्ण की सेवा करना है और यही संदेह वह सभी जन में प्रसारित करती हैं. जब हम किसी के प्रति प्रेम रखते हैं तो पूर्ण निष्ठा भाव के साथ हमें उसे निभाना चाहिए. 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार वृंदावन में प्रसिद्ध पवित्र ललिता कुंड भक्तों को मुक्ति प्रदान करता है. यह ललिता देवी के भगवान कृष्ण और राधा के प्रेम की सबसे शुभ अभिव्यक्ति है जो शुद्ध भक्ति और समर्पण के मार्ग में सभी बाधाओं को दूर करती है. कहते हैं देवी सभी प्रकार के दोषों का शमन करने वाली होती हैं. ललिता सप्तमी के शुभ दिन राधारानी और भगवान कृष्ण के साथ ललिता देवी की पूजा करना अत्यंत शुभ माना जाता है.