हरतालिका तीज : भाद्रपद माह कि तृतीया का पर्व देता है सुखी वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद
तीज पर्व के रुप में मनाई जाने वाली हरतालिका तीज का समय भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को आता है. इस दिन को हरतालिका व्रत के रुप में मनाया जाता है. यह व्रत विवाहिता एवं कुंवारी कन्याओं सभी के लिए विशेष महत्व रखता है.
अपने जीवन साथी की आयु एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए विवाहिता स्त्रियां इस व्रत को करती हैं तथा कन्याएं अपने लिए एक उत्तम एवं मनचाहे वर की कामना हेतु इस व्रत को रखती हैं. देवी पार्वती एवं भगवान शिव का पूजन इस दिन पर विशेष रुप से किया जाता है. जिस प्रकार देवी पार्वती ने भगवान शिव को अपने वर रुप में प्राप्त किया उसी प्रकार सभी को ये सुख प्राप्त हो सके इसलिए स्त्रियां इस व्रत को श्रद्धा एवं भक्ति भाव के साथ रखती हैं. इस व्रत को निराहार रुप में संपन्न किया जाता है.
हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त समय
हरितालिका तीज मंगलवार, 26 अगस्त, 2025 को मनाया जाएगा.
तृतीया तिथि प्रारम्भ - 25 अगस्त, 2025 को 12:25
तृतीया तिथि समाप्त - 26 अगस्त, 20266 को 13:55
प्रातःकाल हरितालिका पूजा मुहूर्त - 05:58 से 13:55 तक
हरतालिका पूजन विधि
फूल, गीली मिट्टी अथवा बालू रेत, केले के पत्ते, बेल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, जनेउ, वस्त्र, समस्त सुहाग सामग्री, घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, चन्दन, कलावा, नारियल, अक्षत, पान, कलश, पंचामृत, भोग सामग्री इत्यादि वस्तुओं को पूजा हेतु उपयोग में लाया जाता है. हरतालिका पूजा में भगवान, देवी पार्वती, श्री गणेश, कार्तिकेय जी के सतह समस्त शिव परिवार को पूजा जाता है. इस में इनकी प्रतिमा अथवा चित्र इत्यादि को स्थापित करने के बाद पूजन आरंभ होता है. कुछ स्थानों पर मिट्टी से मूर्तियां भी निर्मित की जाती हैं. रंगोली बनाते हैं तथा मंदिर में
कलश स्थापित करते हैं जिस पर नारियल रखा जाता है कलश को कलावे से बांधा जाता है और अक्षत अर्पित करके कलश पूजन होता है इसके पश्चात भगवान का पूजन आरंभ होता है. समस्त सामग्री को भगवान शिव एवं देवी पार्वती को अर्पित किया जाता है देवी को सुहाग सामग्री अर्पित करते हैं. हरतालिका तीज की कथा का पढ़ी एवं सुनी है. कथा के बाद आरती होती है तथा भोग अर्पित किया जाता है.
हरतालिका तीज कथा
हिंदू पौराणिक कथाओं में हरतालिका तीज की कथा देवी पार्वती के भगवान शिव के साथ विवाह की कथा से संबंधित है. कथा कहानियों एवं मिथक के आधार पर कई तरह से यह कथा लोक में प्रचलित रही है और वैवाहिक जीवन का आधार बनी. जब दक्ष प्रजापति के हवन में माता सती अपने प्रिय शिव का अपमान सहन नहीं कर पाई तो उसी पवित्र हवन कुंड में कूद कर सती हो गई. इस कृत्य से भगवान शिव पूरी तरह टूट गए.
भगवान शिव ने जब प्रिय सती को खो दिया तो वह इस दुःख में, हजारों वर्षों तक योग ध्यान में चले गए. एक समय, सृष्टि के देवता ब्रह्मा ने चारों ओर देखा और देखा कि प्रकृति अपनी चमक खो चुकी है. शिव के बिना परिवर्तन संभव नहीं ब्रह्मा सृजन नहीं कर सकते थे. अत: विचार पैदा नहीं हो सकते थे, रचनात्मकता और कल्पना अवरुद्ध हो गई थी. तब ब्रह्मा जी श्री विष्णु के साथ शक्ति के पास गए. शक्ति ने ब्रह्मा से कहा कि वह शिव को वापस दुनिया में लाने के लिए पुन: उत्पन्न होंगी.
सती का पार्वती रुप में जन्म
शक्ति का पुनर्जन्म पार्वती के रूप में हुआ था. समय के साथ सती ने शिव से मिलने के लिए हिमालय की पुत्री के रूप में फिर से जन्म लिया, लेकिन शिव वर्षों तक उसी तपस्या में लीन रहे।अपने पूरे जीवन में, पार्वती के दिल में शिव के लिए एक विशेष प्रेम था. पार्वती ने शिव को पाने के लिए कई प्रकार के प्रयास भी किए. भग्वान शिव को जागृत करने हेतु देवताओं ने भी अनेक प्रयास किए. भगवान शिव-पार्वती से मिलने के लिए भगवान शिव की उस तपस्या को तोड़ने के उपाय सोचने लगे और फिर सभी की सहमति पर भगवान कामदेव इस कार्य में लगे.
कामदेव शिव तपोस्थली पहुंचे और विभिन्न प्रयोग करके शिव का ध्यान भंग करने लगे. कामदेव ने शिव पर एक फूल बाण छोड़ा था, कामदेव इस कार्य में सफल हो गए, उन्होंने शिव की तपस्या को तोड़ा, शिव के पुन: जागरण से एक ओर देवता प्रसन्न हुए. अपने शरीर में वासना की उत्तेजना को महसूस करते हुए, क्रोधित हो गया कि उन्हें ध्यान से बाहर लाया गया. क्रोध में, उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोली, और काम को भस्म कर दिया. शिव ने अपनी तीनों आंखें बंद कर लीं और भीतर की ओर पीछे हट गए. पार्वती, व्याकुल होकर कि उनकी योजना विफल हो गई, बैठ गई और सोचा कि आगे क्या करना है.
देवी पार्वती का कठोर तपस्या और शिव से विवाह
देवी पार्वती ने बहुत तपस्या शुरु की थी तब इस कठोर तपस्या को देखकर देवी पार्वती के पिता बहुत चिंतित होते हैं. तब एक बार नारद जी हिमालय के पास आते हैं और भगवान विष्णु का रिश्ता देवी सती के लिए लाते हैं जिसे हिमालय स्वीकार कर लेते हैं. अपना रिश्ता विष्णु के साथ तय होने का सुन अत्यंत दुखी होती हैं. पार्वती की सखी जब उनकी यह दशा देखती हैं तब देवी सखी को अपना दुख बताती हैं. तब उनकी सखी उन्हें अपने साथ एक घने जंगल में ले जाती हैं. तब सब से छिप कर देवी वहां तपस्या करती हैं.
पिता हिमालयराज को जब देवी के कहीं चले जाने का बोध हुआ तो उनकी खोज करवाते हैं. यहां देवी की खोज जारी रहती है. नदी के किनारे एक गुफा में तपस्या लीन होती हैं. भाद्रपद शुक्ल की तृतीया को हस्त नक्षत्र में शिवलिंग स्थापित कर व्रत करती हैं पार्वती ध्यान करने लगती हैं. हजारों सालों से वह गर्म अंगारों में एक पैर पर खड़ी है. हजारों सालों से वह ठंडे बर्फ में दूसरे पैर पर खड़ी है. इन ध्यानों के दौरान, वह तप, आंतरिक गर्मी का निर्माण करती है, और उसकी अपनी शक्ति इतनी मजबूत हो जाती है कि शिव, अपने ध्यान में गहरे, उसकी उपस्थिति को महसूस करने लगते हैं और अपने ध्यान से जागते हैं.
भगवान शिव ने देवी को दर्शन दिए ओर उनकी तप के वर स्वरुप उन्हें अपनी भार्या स्वीकार किया. देवी की तपस्या सफल होती हैं और वह भगवान को अपने जीवन साथी के रुप में प्राप्त करती हैं.
 
                 
                     
                                             
                                             
                                             
                                            