पजूनो पूनो व्रत | Pajuno Puno Vrat | Pajuno Puno Vrat | Puno Festival

चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन पजूनो पूनो व्रत का विधान है. इस शुभ तिथि के अवसर पर महिलाएं संतान की खुशहाली के लिए इस व्रत का पूजन एवं नियम पूर्ण श्रद्धा के साथ करती हैं. यहां पूजन पूनो से तात्पर्य यह है कि शुक्ल पक्ष की पंद्रहवीं या चंद्रमास की अंतिम तिथि को पूनो कहा जाता है और जब चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा आती है तो पूजन कुमार की पूजा कि जाती है. इस कारण से इस व्रत को पजूनो पूनो व्रत कहा गया है.

चैत्र पूर्णिमा के पवित्र दिन पजून कुमार जी की पूजा होती है. इस पर्व में पूजा-पाठ का बहुत महत्व होता है तथा इच्छा ओर सामर्थ के अनुसार महिलाएं व्रत भी रख सकती हैं. इस दिन की एक रोचक बात यह है कि कहते तो इसे पजूनो पूनो व्रत है परंतु इस दिन व्रत का विशेष विधान नहीं है बल्कि केवल पूजन का ही महत्व अधिक माना गया है. जिस घर में पुत्र संतान उत्पन्न हो उस घर में इस पूजा को किया जाता है.

पजूनो पूनो पूजा विधि | Pajuno Puno Pooja Vidhi

जिस घर में पुत्र का जन्म होता है वहां इस शुभ तिथि के दिन स्त्रियां विधि विधान के साथ पजूनो कुमार की पूजा करती हैं. पूजा में पाँच या सात मिट्टी से बनी मटकियाँ पूजी जाती हैं. इन मटकियों के साथ करवे को भी उपयोग में लाया जाता है. अब इन सभी मटकियों को चूने से रंगा जाता है या खड़िया मिट्टी से रंगा जाता है तथा इसके साथ ही करवे को भी हल्दी से रंग देते हैं. सभी मटकियों और करवे को रंगने के पश्चात इन्हें सुखाने के लिए रख देते हैं .

मटकियों तथा करवे के सूखने के बाद अब इन मटकियों तथा करवे पर पजून कुमार अर्थात बालक का चित्र बनाते हैं तथा इसके साथ ही पजूनो की दोनों माताओं का भी चित्र बनाया जाता है. चित्र बनाने के उपरांत मटकियों के मध्य में करवे को स्थापित किया जाता है तत्पश्चात इन मटकियों और करवे को विभिन्न पकवानों और मिठाईयों से भर दिया जाता है तथा पूजा आरंभ कि जाती है.

इस पूजन में भगवान गणेश, माता गौरी तथा नवग्रहों का विधि पूर्वक पूजन के साथ पजूनो कुमार एवं उनकी दोनो माताओं का पूजन किया जाता है. इसके साथ ही कथा सुनी जाती है. एक स्त्री कथा सुनाती है और बाकी स्त्रियां हाथों में चावल लेकर शांति एवं श्रद्धा पूर्वक कथा सुनती हैं.

कथा समाप्त होने पर मटकियों पर अक्षत छोड़कर नमन किया जाता है फिर मटकियों को हिला -हिलाकर उन्ही के स्थानों पर रख देते हैं. अब बालक, पजून कुमार की मटकी में से लड्डू निकालकर माँ की झोली में डाल देता है और मां बालक को लड्डू -पकवान इत्यादि देती है. घर के सभी सदस्यों को मटकियों का पकवान प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है. प्रसाद देते समय 'पजून के लड्डू वा पजून खायं, दौर -दौर वही कोठरी में जायं l l 'को बार बार कहा जाता है.

इस प्रकार यह पूजा संतान की दीर्घायु और उसके सुखी जीवन के लिए की जाती है तथा माता और संतान का प्रेम भी घनिष्ठ होता है.

पजूनो पूनो कथा | Pajuno Puno Katha

पजूनो पूनो कथा इस प्रकार है - राजा वासुकी की दो पत्नियाँ थी. जिनमे से एक नाम सिकौली और दूसरी पत्नी का नाम रुपा था. राजा अपनी पत्नीयों के साथ सुख पूर्वक जीवन जी रहे थे. परंतु उन्हें एक ही दुख था कि उनके कोई संतान नहीं थी. सिकौली बड़ी थीं और रुपा छोटी थी. जहां सिकौली को अपनी सास और ननद का भरपूर प्रेम मिलता था वहीं रुपा को उसकी सास और ननद पसंद नहीं करती थी, लेकिन रूपा राजा को बहुत प्रिय थी इसलिए वह सास और ननद की नाराजगी से अधिक परेशान नहीं होती थी.

रुपा को संतान की बहुत इच्छा थी इसलिए वह बूढ़ी स्त्रियों से पुत्र - प्राप्ति का उपाय पूछती थी, तो वह बुजुर्ग स्त्रियाँ उसे बताती थी कि यदि सास-ननद का आशीर्वादप्राप्त हो तो उसे संतान सुख भी प्राप्त हो सकता है. किंतु रुपा की सास और ननद उससे नाराज ही रहती थीं. इसलिए उसने बुजुर्ग स्त्रियों से सलाह मांगी की वह कैसे अपनी सास और ननद का आशीर्वादप्राप्त कर सकती है तो उन बूढी स्त्रियों ने उसे एक तरकीब बताई जिसके अनुसार एक दिन रुपा ग्वालिन का वेश बनाकर सास - ननद के महल में दूध देने जाती है. दूध की मटकियाँ उनके पास रख कर वह उनके पाँव छूती हैं और सास-ननद उसके भेद को न जानकर ग्वालिन बनी रुपा को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे देती हैं.

कुछ समय पश्चात आशीर्वाद स्वरुप रूपा गर्भवती होती है और इस खुशखबरी को राजा को बताती है. रुपा इसका सारा भेद भी राजा को बता देती है लेकिन इसके साथ ही साथ वह राजा से यह भी कहती है कि हम यह बात किसी को नहीं बता सकते परंतु मै तो प्रसव के बारे में कुछ भी नहीं जानती अब सब कैसे होगा. राजा सारी बात सुनकर रुपा से कहता है कि 'तुम चिन्ता न करो मै तुम्हारे महल में कुछ घंटियाँ बँधवा देता हूँ. इस तरह जब भी तुम्हे प्रसव पीड़ा आरंभ हो तो तुम इन डोरे से बंधी घंटियों को खींच देना और इनकी आवाज सुन मै तुरंत तुम्हारे पास आ जाउँगा. इस प्रकार सारे प्रबन्ध करके राजा अपने महल लौट जाता है.

रानी अपनी सुरक्षा के प्रबंध की जांच करने के बारे में सोचती है और नादानी वश उन घंटियों को बजा देती है. घंटियों की आवाज सुन राजा दरबार छोड़कर तुरंत रानी के पास पहुँच जाता है लेकिन वहां पहुँच कर जब राजा को स्थिति का पता चलता है तो उसे बहुत क्रोध आता है और वह नाराज होकर वहाँ फिर कभी न आने की बात कहकर लौट जाता है. अपनी गलती पर रानी को बहुत पश्चाताप होता है परंतु अब उसके पास कोई और सहायता नहीं होती तो वह मजबूर होकर सास और ननद के पास जाती है और उन्हें अपने मां बनने की बात कहती है.

सास और ननद उसकी बात सुन मन ही मन क्रोधित होती हैं, परंतु चेहरे पर शिकन लाए बिना उसके समक्ष अच्छा आचरण करती हुई उसकी मदद करने का आश्वासन देतीं हैं. वह रुपा से कहतीं हैं कि जब उसे प्रसव पीडा़ शुरू हो तो वह अपना सिर कोने में रख कर ओखली में बैठ जाए. रूपा अपनी सास और ननद की चाल से बेखबर हो उनके बताए हुए उपाय को ही करती है. इस प्रकार जब बच्चा पैदा होता है तो वह ओखली में गिर जाता है. बच्चे का रोना सुन सास -ननद वहाँ पहुँचती हैं और उनके साथ सिकौली रानी भी होती है. वह बच्चे को कचरे के ढेर पर फिकवा देती हैं और ओखली में कंकड -पत्थर डाल देती हैं और रुपा से कहती हैं कि उसने तो कंकड पत्थर पैदा किए हैं.

राजा को जब रुपा के प्रसव का पता चलता है तो वह तुरंत वहां पहुंच जाता है, लेकिन बच्चे के स्थान पर उन कंकड़ पत्थर को देखकर वह परेशान हो जाता है. राजा को अपनी माँ तथा बहन की चाल का पता चल जाता है पर वह कुछ भी नहीं कह पाता. जिस दिन बच्चे को जन्म होता है उस दिन चैत्र शुक्ला पूर्णिमा होती है. एक कुम्हार की निगाह उस कचरे के ढेर पर पडे़ बच्चे पर पड़ती है. वह उस बच्चे को अपने घर ले आता है जहां कुम्हार की पत्नी उसे अपनाकर उसका लालन पालन करती है.

बालक के बडा़ होने पर कुम्हार उसे खेलने के लिए मिट्टी का घडा बनाकर देता है. एक दिन  बालक उस घोडे़ के साथ खेलने लगता है और उसे नदी में डुबो कर पानी पीने को कहता है. बालक को ऎसा करते देख स्त्रियां उसे कहती हैं कि, मूर्ख क्या कभी मिटटी का घोड़ा भी पानी पीता है तो बालक उन्हें कहता है कि जब रानी कंकड़ पत्थर पैदा कर सकती है तो यह घोडा़ भी पानी क्यों नहीं पी सकता. उस बालक की बात सुन सभी स्त्रियां आश्चर्य से भर जाती हैं और उस बालक को रुपा का बच्चा कहने लगती हैं. जब सिकौली को इस बात का पता चलता है तो वह उस बच्चे को मरवाने का प्रयास करती हैं. राजा से उसे मारने को कहती है लेकिन राजा ऎसा करने से मना कर देता है परंतु रानी के हठ के समक्ष हार कर वह उस कुम्हार  परिवार को राज्य से बाहर निकाल देता है.

कुछ दिनों पश्चात वह बालक भेस बदलकर दरबार में आने लगता है. वहां उसे कोई पहचान नहीं पाता और वह उनके साथ घुल मिल जाता है. एक बार राज्य में अकाल पड़ जाता है. राज्य के ज्योतिष राजा को इस संकट की घडी़ से उबरने के लिए उपाय बताते हैं कि अगर राजा-रानी स्वयं रथ में बैल की तरह कन्धा देकर चलें ओर चैत्र -शुक्ल पूर्णिमा को उत्पन्न हुआ द्विजातीय बालक रथ को हाँके तो वर्षा अवश्य होगी और अकाल समाप्त हो जाएगा. यह सुनकर बालक राजा से कहता है कि वह चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही जन्मा है.

रथ चलाने की तैयारियाँ होती हैं इस बीच वह बालक रुपा के पास जाकर उसे कहता है कि इस समय जो भी काम होगा वह तुम अपनी जेठानी के बाद ही करना और हर काम में तुम उसे पहले करने देना. रूपा  बालक के कथन अनुसार ही कार्य करती है. रथ में कन्धा देने के समय वह पहले सिकौली रानी को आगे करती है. जब सुकौली रानी रथ को हाकने लगती है तो उसे बहुत कष्ट मिलता है. तेज धूप और मार्ग में बिछे कांटे उसे बहुत कष्ट देते हें.

जब रुपा की बारी आती है तो आसमान में बादल छाने लगते हैं और वर्षा होने लगती है. इस तरह रुपा को कोई भी कष्ट नहीं होता. बालक रूपा के चरण छुता है और सभी जान जाते हैं कि वह रानी का पुत्र पजून कुमार है. पजून कुमार महल में आता है और दादी के पास जाता है और उनसे कहता हे कि “दादी हम आये क्या आपके मन भाये” तो दादी कहती है - “बेटा नाती-पोते किसे बुरे लगते है”. तब पजून कुमार कहता है कि आपने मेरे मन की बात नहीं कही इसलिए मैं तुम्हे शाप देता हूँ तुम अगले जन्म में दहलीज बनो.

अब बालक बुआ के पास जाता है और उनसे कहता है बुआ, “हम आये क्या तुम्हारे मन भाये”. बुआ भी उसके मन अनुसार उत्तर नही देती तो वह बुआ को चौका लगाने वाला मिटटी का बर्तन हो जाने का शाप दे देता है. बालक अपनी सौतेली माँ सिकौली के पास जाता है और उनसे कहता है - “माँ हम आये ,क्या तुम्हारे मन भाए”. इस पर सौतेली माँ कहती है - “आये सो अच्छे आये ,जेठी के हो या लहूरि के, होते लड़के ही”. पजून को अब भी मन अनुसार उत्तर नहीं मिलता इसलिए वह सिकौली को घूंघची बनने का श्राप देता है.

आखिर में वह अपनी असली माँ रूपा के पास जाता है और कहता है - ‘माँ ! माँ  हम आये तुम्हारे मन भायेे या न भाये”. रूपा रानी बोली, बेटा आये आये ! हमने न पाले न पोसे, न खिलाये न पिलाये l हम क्या जाने कैसे आये ? तभी वह किशोर राजकुमार नवजात शिशु के रूप में बदलकर रोने लगता है.  माँ उसे गोद मे लेकर दूध पिलाने लगी. सभी बालक को पाकर प्रसन्नता से झूम उठते हैं और सारे राज्य में आनन्द की लहर दौड़ गई तभी से इसी दिन को पजूनो -पूनो का प्रचलन आरंभ हुआ.