महर्षि ऋभु | sage Ribhu | Saint Ribhu | Maharshi Ribhu

महर्षि ऋभु ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में से एक हैं. ऋषि ऋभु ब्रह्मतत्त्वज्ञ तथा निवृत्तिपरायण भक्त हुए. इनकी क्षमता ने इन्हें एक  महान तपस्वी बनाया इनकी अगाध श्रद्धा ने ही इन्हें प्रभु के भक्त रुप दिया. इनका गुरुत्व प्राप्त करके इनके सभी शिष्य अपने क्षेत्रों में अग्रीण व्यक्ति बने. महर्षि ऋभु ने मन्त्र, योग और ज्ञान प्राप्त किया और अपने ज्ञान को सभी के समक्ष समान रुप से बांटा. ऋषि ऋभु विक्षेप तथा आवरण से रहित जीवन जीने में विश्वास करते थे.

महोपनिषद ने ऋभु जी का वर्णन प्राप्त होता है, महोपनिषद के पंचम अध्याय में ज्ञान एवं अज्ञान की सात भूमिकाओं को महर्षि ऋभु ने अपने संवादों द्वारा अपने पुत्र को बताया है वह कहते हैं हे पुत्र ज्ञान और अज्ञान के सात-सात चरण होते हैं. अहंकार का भाव अज्ञान का मूल स्वरूप है जिसमें यह मेरा है, मैं हूं के भाव उत्पन्न होते हैं, अज्ञान से ही जीव मोह, माया में ग्रस्त होकर आत्म स्वरूप से परे हो जाता है उसे जान नहीं पाता राग, द्वेषा भाव इसी से उत्पन्न होते हैं.

ज्ञान का प्रथम चरण शुभेच्छा से आरंभ होता हैं, सत्संग द्वारा सदाचार भावनाएं जाग्रत होती हैं तथा भोग विलास, विषय वासनाओं की आसक्ति क्षीण हो जाती है और वैराग्य उत्पन्न होता है मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है अत: ज्ञानी व्यक्ति शुभ कर्मों में लीन होकर सदाचरण का निर्वाह करते हैं और मोक्ष के भागी बनते हैं.

महर्षि ऋभु और शिष्य निदाघ | Story of the Sage Ribhu and His Disciple Nidagha

ऋषि पुलस्त्य के पुत्र निदाघ महर्षि ऋभु के शिष्य थे. महर्षि ऋभु से प्रभावित होकर ही ऋभु जी को अपना गुरु माना और गुरु के साथ निदाघ ने अनेक प्रकार की शिक्षा प्राप्त कि निदाघ ने इनकी पूर्ण तन्मयता से सेवा की इनकी गुरु भक्ति से प्रभावित हो ऋषि ऋभु ने निदाघ को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया. अपने गुरू ऋभु से ज्ञान प्राप्त करके गुरु की आज्ञा अनुसार निदाघ ने विवाह करके अपनी पत्नी के साथ गृहस्थ का पालन करने लगे. कुछ समय पश्चात महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघ से मिलने उसके आश्रम पहुंचे

महर्षि ऋभु जब निदाध के आश्रम पहुंचे, परंतु निदाघ उन्हें पहचान नहीं पाया. लेकिन ऋषि के तेज को देखकर वह समझ गया की वह अवश्य ही कोई महान ऋषि हैं और उनका स्वागत करता है. पत्नी शशिप्रभा के साथ मिलकर वह ऋषि की सेवा में निस्वार्थ भावना से लगे रहते हैं. उनका यथेष्ट सत्कार करते हैं. महर्षि ऋभु अपने शिष्य के इस व्यवहार से बहुत प्रसन्न होते हैं. परंतु अभी भी वह अपने शिष्य की परीक्षा लेने का विचार रखते हैं. अत: जब उनका शिष्य उन्हें भोजन परोसते हुए उनसे प्रश्न करता है कि क्या आप कहा से आ रहे हैं तो उसके इस प्रश्न पर वह उससे बहुत ही रुखे स्वर में जवाब देते हैं कि मैं कहीं आता, जाता नहीं हूं, यह आना-जाना तो देह का धर्म है.

ऋषि के इस अजीब उत्तर से निदाध हैरान हो जाता है परंतु फिर भी वह अपनी शालीनता बरकरार रखते है. इसी प्रकार अन्य प्रश्नों के उत्तर भी निदाघ को असंतुष्ट कर देते हैं और अतिथि के इस व्यवहार से निदाध का मन क्षुब्ध हो जाता है. तभी आचार्य उनसे कहते हैं कि, मेरे रूखे व्यवहार से तुम अपमानित एवं विचलित महसूस कर रहे हो इसका अर्थ तो यह हुआ कि तुम अभी भी अपने विचारों पर विजय पाने में सफल नहीं हो पाए हो और तुम्हे अभी और प्रयास की आवश्यकता है. निदाध ऋषि कि इस वाणी को सुन जान गया की यह व्यक्ति ओर कोई नही बल्कि उसके आचार्य महर्षि ऋभु हैं. वह उनसे क्षमा मांगता है और उनके चरणों में नतमस्तक होता है. महर्षि ऋभु उसे हृदय से लगा लेते हैं. इनकी कृपा से निदाघ आत्मनिष्ठ हो गये ।