रामानुजाचार्य जयंती 2024

भारत में चली आ रही संत एवं भक्ति परंपरा के मध्य एक नाम रामानुजाचार्य जी का भी आता है. यह दर्शन शास्त्र में अपनी भूमिका को दर्शाते हैं. रामानुजाचार्य जी ने अपनी ज्ञान एवं आध्यात्मिक ऊर्जा द्वारा देश भर में भक्ति का प्रचार किया. वैष्णव सन्त होने के साथ साथ भक्ति परंपरा पर भी इनका बहुत प्रभाव रहा है. इस वर्ष रामानुजाचार्य जयंती 12 मई 2024 को रविवार के दिन मनाई जाएगी.

रामानुजाचार्य जन्म समय

रामानुजाचार्य का समय 1017-1137 ई. तक का माना जाता है. इनका जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था. रामानुजाचार्य जी के शिष्यों में रामानंद जी का नाम अग्रीण रहा है और जिनके आगे कबीर, रैदास और सूरदास जैसी शिष्य परंपरा देखने को मिलती है.

रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद

आचार्य रामानुज का विशिष्टाद्वैत दर्शन का सिद्धांत बहुत सी पुरानी मान्यताओं को दर्शाता था. यह सिद्धांत प्राचीन चले आ रहे दर्शन के अलग-अलग मतों में से एक रहा है. रामानुजाचार्य द्वारा चलाया गया यह विचार प्रभावशाली विचारों में से एक था. दक्षिण भारत में मुख्य रूप से चल रहे भक्ति आंदोलन से प्रभावित होते हुए यह आगे बढ़ता है.

विशिष्टाद्वैत का अर्थ विशिष्ट अद्वैत के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है. आचार्य रामानुज ने 1037-1137 ईसवी के समय के मध्य इस मत का प्रचार किया. यह दार्शनिक मत है जिसके द्वारा बताया गया है कि सृष्टि और जीवात्मा दोनों ब्रह्म से भिन्न हैं लेकिन वह उसी ब्रह्म से ही उद्भूत अर्थात उत्पन्न हैं, यह संबंध बहुत घनिष्ट है. इस संबंध को ऎसे समझा जा सकता है जैसे शरीर में प्राण का होना. सूर्य के साथ किरणों का होना. ब्रह्म एक होने पर भी अनेक है.

रामानुज जी ने वेदों का चिंतन किया और उसके अनुरूप - उपनिषदों तथा वेदांत सूत्रों के ब्रह्म से एकात्मता को अपनी पद्धति का आधार बनाया. ईश्वर के रूप में ब्रह्म में जीव पूरी संपूर्णता के साथ संबंधित होता है, इन्हीं बातों पर रामानुज ने अपना विचार विस्तार से रखा.

विशिष्टाद्वैत दर्शन में बताया गया है कि शरीर विशिष्ट है, जीवात्मा अंश और परमात्मा अंशी है. संसार प्रारंभ होने से पूर्व “सूक्ष्म चित विशिष्ट ब्रह्म” की स्थिति होती है संसार एवं जगत की उत्पत्ति के उपरांत 'स्थूल चित विशिष्ट ब्रह्म' की स्थिति रहती है. 'तयो एकं इति ब्रह्म' जब प्राण शरीर से मुक्त होता है तो वह सीमाओं की परिधि से छूट कर ब्रह्म में विलीन हो जाता है और उसकी यही स्थिति मोक्ष है. जो आत्मा शरीर से मुक्त होती हैं व ईश्वर की भांति हो जाती हैं किंतु ईश्वर नहीं होती हैं.

आचार्य रामानुज और शंकराचार्य के मत में क्या अंतर रहा ?

आचार्य रामानुज ने जो सिद्धांत सभी के सामने रखा उसमें आदि शंकराचार्य द्वारा दिए गए माया वाद के सिद्धांत को कुछ नकारा भी है. शंकराचार्य ने सृष्टि जिसे जगत कहते हैं उसको माया का स्वरुप कहा है, और इसे मिथ्या अर्थ्ता भ्रम दर्शाया है. रामानुज इस से अलग अपने कथन में बताते हैं कि यह संसार ब्रह्म ने ही बनाया है और इस कारण यह मिथ्या अर्थात भ्रम माया कैसे हो सकता है.

रामानुजाचार्य गुरु-शिष्य परंपरा में अग्रीण स्थान रखते हैं

रामानुज आचार्य जी को यादव प्रकाश का शिष्य बताया जाता है, पर बाद में इन दोनों के मध्य विचारों में मतभेद भी दिखाई देते हैं. जिस कारण गुरु ओर शिष्य का मार्ग अलग-अलग हो जाता है.परंतु बाद में इनके गुरु श्री यादव प्रकाश को अपनी पूर्व करनी पर पश्चात्ताप होता है और वे भी संन्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम श्रीरामानुजाचार्य की सेवा में रहने लगे और उनके शिष्य बनते हैं.

श्रीरामानुचार्य के विषय में कहा जाता है की पहले वह गृहस्थ थे. किंतु बाद में वह गृहस्थ जीवन को त्याग देते हैं और अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए निकल पड़ते हैं.

रामानुजाचार्य और यमुनाचार्य का संबंध

11 वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध वेदांत विद्वान यमुनाचार्य से भी इन्हें बहुत कुछ सिखने का अवसर प्राप्त होता है. पर कुछ विचारकों के अनुसार कहते हैं कि यमुनाचार्य से रामानुज मिल नहीं पाए क्योंकि यमुनाचार्य की की मृत्य हो जाती है, जिस कारण एक दूसरे इनकी मुलाकात नहीं हो पाती है.

कुछ किवदंतियों के अनुसार यह पता चलता है की यमुनाचार्य मृत्यु उपरांत रामानुजाचार्य जी को उनका स्थान प्राप्त होता है. वह श्री वैष्णव संप्रदाय के नए गुरु के रूप में स्थापित भी होते हैं.

श्रीरामानुजाचार्य कांचीपुरम में रहते थे और यमुनाचार्य जी श्रीरंगम के मठाधीश प्रसिद्ध आलवार संत थे. कहा जाता है कि जब श्री यामुनाचार्य जी को अपनी मृत्यु का आभास हुआ तो उन्होंने अपने शिष्यों द्वारा श्री रामानुजाचार्य को अपने पास बुलाने का संदेश भेजा. तब उनके शिष्य रामानुजाचार्य के पास संदेश लेकर पहुंचे. रामानुजाचार्य जी तुरंत यामुनाचार्य जी से मिलने के लिए निकल पड़ें , किंतु रामानुजाचार्य के यामुना जी से मिलने से पुर्व ही यामुनाचार्य जी की मृत्यु हो जाती है.

रामानुज जी ने जब यामुनाचार्य जी के पार्थिव शरीर को देखा तो पाया की उनके हाथ की तीन उंगलियां मुड़ी हुई थीं. सभी लोगों को जब इस का आभास हुआ तो उन्होंने इस रहस्य को जानने की इच्छा प्रकट की. रामानुजाचार्य जी ने इस रहस्य का भेद बताते हुए कहा कि - श्रीयामुनाचार्य कहना चाहते हैं कि “मै अज्ञान जनों को जो भोग विलास में हैं जीवन के सही अर्थ को नहीं समझ पाए हैं. उन लोगों को नारायण के चरणकमलों में लगाकर बिना किसी भेद भाव के उनकी रक्षा करता रहूंगा. उनके इतना कहते ही यामुनाचार्य जी की एक अंगुली खुलकर सीधी हो जाती है.

दूसरे वचन में रामानुज कहते हैं “मैं लोगों की रक्षा एवं उनके ज्ञान को बेहतर करने हेतु परम तत्वज्ञान से युक्त श्री भाष्य की रचना करुंगा. इस कथन के साथ ही यामुनाचार्य जी की दूसरी अंगुली भी खुलकर सीधी हो जाती है और अपने अंतिम तीसरे कथन में रामानुजाचार्य जी कहते हैं. पराशर मुनि जिस प्रकार लोगों के कल्याण हेतु और उनकी उन्नति का मार्ग बताते हुए विष्णु पुराण की रचना करते हैं, उनके ऋण को चुकाते हुए मैं यामुनाचार्य किसी योग्य शिष्य को उनका नाम दूंगा.

रामानुज आचार्य जी के यह कहते ही यामुनाचार्य तीसरी उंगली भी खुल कर सीधी हो जाती है. सभी शिष्य एवं वहां उपस्थित लोगों द्वारा इस बात को समझ कर बिना किसी संदेह और विवाद के सभी ने अपनी सहमति प्रकट करते हुए श्री रामानुजा ही अगले आलवन्दार का आसन प्रदान होता है.